यथा चैकस्मिन् मुक्ताफलस्रग्दाम्नि यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभाव- लक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः, तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो
शुक्लमित्यक्षरद्वयेन हारो वाच्यो न भवति सूत्रं वा मुक्ताफलं वा, हारसूत्रमुक्ताफलशब्दैश्च शुक्लगुणो वाच्यो न भवति । एवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्त लक्षण-
तद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते । स च तदभावः पुनरपि किं भण्यते । अतद्भावः संज्ञा-
लक्षणप्रयोजनादिभेद इति । तथा मुक्तजीवे योऽसौ शुद्धसत्तागुणस्तद्वाचकेन सत्ताशब्देन मुक्तजीवो
प्र. २७
एक -दूसरेमें जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होनेका अभाव’ है वह ‘तद् -अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है, जो कि अन्यत्वका कारण है । इसीप्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य
नहीं है, १अन्यगुण नहीं है, या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण
— इसप्रकार एक -दूसरेमें जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होनेका अभाव’ है वह
२‘तद् -अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है जो कि अन्यत्वका कारण है ।
भावार्थ : — एक आत्माका विस्तारकथनमें ‘आत्मद्रव्य’के रूपमें ‘ज्ञानादिगुण’ के
रूपमें और ‘सिद्धत्वादि पर्याय’ के रूपमें — तीन प्रकारसे वर्णन किया जाता है । इसीप्रकार
सर्व द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये ।
और एक आत्माके अस्तित्व गुणको ‘सत् आत्मद्रव्य’, सत् ज्ञानादिगुण’ और ‘सत्
सिद्धत्वादि पर्याय’ — ऐसे तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है; इसीप्रकार सभी द्रव्योंके
सम्बन्धमें समझना चाहिये ।
और एक आत्माका जो अस्तित्व गुण है वह आत्मद्रव्य नहीं है, (सत्ता गुणके बिना)
ज्ञानादिगुण नहीं है, या सिद्धत्वादि पर्याय नहीं है; और जो आत्मद्रव्य है, (अस्तित्वके सिवाय) ज्ञानादिगुण है या सिद्धत्वादि पर्याय है वह अस्तित्व गुण नहीं है — इसप्रकार उनमें परस्पर अतद्भाव
है, जिसके कारण उनमें अन्यत्व है । इसीप्रकार सभी द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये ।
१. अन्यगुण = सत्ता के अतिरिक्त दूसरा कोई भी गुण ।
२. तद् -अभाव = उसका अभाव; (तद् -अभाव = तस्य अभावः) तद्भाव अतद्भावका लक्षण (स्वरूप) है;
यद्द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात् ।
एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ।।१०८।।
वाच्यो न भवति केवलज्ञानादिगुणो वा सिद्धपर्यायो वा, मुक्तजीवकेवलज्ञानादिगुणसिद्धपर्यायशब्दैश्च शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति । इत्येवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य
पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते । स च तदभावः पुनरपि किं भण्यते । अतद्भावः संज्ञा-
भेदरूपमतद्भावं दृढयति — जं दव्वं तं ण गुणो यद्द्रव्यं स न गुणः, यन्मुक्तजीवद्रव्यं स शुद्धः सन् गुणो
न भवति । मुक्तजीवद्रव्यशब्देन शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवतीत्यर्थः ।जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो
इसप्रकार इस गाथामें सत्ताका उदाहरण देकर अतद्भावको स्पष्टतया समझाया है ।
(यहाँ इतना विशेष है कि जो सत्ता गुणके सम्बन्धमें कहा है, वह अन्य गुणोंके विषयमें
भी भलीभाँति समझ लेना चाहिये । जैसे कि : — सत्ता गुणकी भाँति एक आत्माके पुरुषार्थ
गुणको ‘पुरुषार्थी आत्मद्रव्य’ ‘पुरुषार्थी ज्ञानादिगुण’ और ‘पुरुषार्थी सिद्धत्वादि पर्याय’ —
इसप्रकार विस्तरित कर सकते हैं । अभिन्नप्रदेश होनेसे इसप्रकार विस्तार किया जाता है, फि र
भी संज्ञा -लक्षण -प्रयोजनादि भेद होनेसे पुरुषार्थगुणको तथा आत्मद्रव्यको, ज्ञानादि अन्य गुण और सिद्धत्वादि पर्यायको अतद्भाव है, जो कि उनमें अन्यत्वका कारण है ।।१०७।।
अब, सर्वथा अभाव वह अतद्भावका लक्षण है, इसका निषेध करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अर्थात् ] स्वरूप अपेक्षासे [यद् द्रव्यं ] जो द्रव्य है [तत् न गुणः ]
वह गुण नहीं है, [यः अपि गुणः ] और जो गुण है [सः न तत्त्वं ] यह द्रव्य नहीं है ।[एषः
हि अतद्भावः ] यह अतद्भाव है; [न एव अभावः ] सर्वथा अभाव वह अतद्भाव नहीं है; [इति निर्दिष्टः ] ऐसा (जिनेन्द्रदेव द्वारा) दरशाया गया है ।।१०८।।
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे,
– आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.
द्रव्यं वाच्यं न भवति तथा यदि सत्ताप्रदेशैरपि सत्तागुणात्सकाशाद्भिन्नं भवति तदा यथा
टीका : — एक द्रव्यमें, जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है; —
इसप्रकार जो द्रव्यका गुणरूपसे अभवन (-न होना) अथवा गुणका द्रव्यरूपसे अभवन वह अतद्भाव है; क्योंकि इतनेसे ही अन्यत्वव्यवहार (-अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध होता है । परन्तु
द्रव्यका अभाव गुण है, गुणका अभाव द्रव्य है; — ऐसे लक्षणवाला अभाव वह अतद्भाव नहीं
है । यदि ऐसा हो तो (१) एक द्रव्यको अनेकत्व आ जायगा, (२) उभयशून्यता (दोनोंका
अभाव) हो जायगी, अथवा (३) अपोहरूपता आ जायगी । इसी को समझाते हैं : —
(द्रव्यका अभाव वह गुण है और गुणका अभाव वह द्रव्य; वह ऐसा मानने पर प्रथम
दोष इस प्रकार आयगा : — )
(१) जैसे चेतनद्रव्यका अभाव वह अचेतन द्रव्य है, अचेतनद्रव्यका अभाव वह
चेतनद्रव्य है, — इसप्रकार उनके अनेकत्व (द्वित्व) है, उसीप्रकार द्रव्यका अभाव वह गुण,
गुणका अभाव वह द्रव्य — इसप्रकार एक द्रव्यके भी अनेकत्व आ जायगा । (अर्थात् द्रव्यके
एक होनेपर भी उसके अनेकत्वका प्रसंग आ जायगा ।)
(अथवा उभयशून्यत्वरूप दूसरा दोष इस प्रकार आता है : — )
(२) जैसे सुवर्णके अभाव होने पर सुवर्णत्वका अभाव हो जाता है और
सुवर्णत्वका अभाव होने पर सुवर्णका अभाव हो जाता है, — इसप्रकार उभयशून्यत्व –
दोनोंका अभाव हो जाता है; उसीप्रकार द्रव्यका अभाव होने पर गुणका अभाव और गुणका अभाव होने पर द्रव्यका अभाव हो जायगा; — इसप्रकार उभयशून्यता हो जायगी । (अर्थात्
(उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक) परिणाम है [सः ] वह (परिणाम) [सदविशिष्टः गुणः ] ‘सत्’ से अविशिष्ट (-सत्तासे अभिन्न है ऐसा) गुण है ।[स्वभावे अवस्थितं ] ‘स्वभावमें
अवस्थित (होनेसे) [द्रव्यं ] द्रव्य [सत् ] सत् है’ — [इति जिनोपदेशः ] ऐसा जो (९९
वीं गाथामें कथित) जिनोपदेश है [अयम् ] वही यह है । (अर्थात् ९९वीं गाथाके
कथनमेंसे इस गाथामें कथित भाव सहज ही निकलता है ।) ।।१०९।।
टीका : — द्रव्य स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे सत् है, — ऐसा पहले (९९वीं
गाथामें) प्रतिपादित किया गया है; और (वहाँ) द्रव्यका स्वभाव परिणाम कहा गया है ।
यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि — जो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है वही ‘सत्’
से अविशिष्ट (-अस्तित्वसे अभिन्न ऐसा – अस्तित्वसे कोई अन्य नहीं ऐसा) गुण है ।
द्रव्यके स्वरूपका वृत्तिभूत ऐसा जो अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथनके द्वारा ‘सत्’ शब्दसे
कहा जाता है उससे अविशिष्ट (-उस अस्तित्वसे अनन्य) गुणभूत ही द्रव्यस्वभावभूत परिणाम है; क्योंकि द्रव्यकी १वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकारके समयको स्पर्शित करती होनेसे
(वह वृत्ति – अस्तित्व) प्रतिक्षण उस -उस स्वभावरूप परिणमित होती है ।
(इसप्रकार) प्रथम तो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है; और वह (उत्पाद -व्यय-
ध्रौव्यात्मक परिणाम) अस्तित्वभूत ऐसी द्रव्यकी वृत्तिस्वरूप होनेसे, ‘सत्’ से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक (-द्रव्यका रचयिता) गुण ही है । — इसप्रकार सत्ता और द्रव्यका गुणगुणीपना
दव्वं सयं सत्ता तस्मादभेदनयेन सत्ता स्वयमेव द्रव्यं भवतीति । तद्यथा — मुक्तात्मद्रव्ये परमावाप्तिरूपो
अन्वयार्थ : — [इह ] इस विश्वमें [गुणः इति वा कश्चित् ] गुण ऐसा कुछ [पर्यायः
इति वा ] या पर्याय ऐसा कुछ [द्रव्यं विना नास्ति ] द्रव्यके बिना (-द्रव्यसे पृथक्) नहीं होता; [द्रव्यत्वं पुनः भावः ] और द्रव्यत्व वह भाव है (अर्थात् अस्तित्व गुण है); [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं स्वयं सत्ता ] द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व) है ।।११०।।
टीका : — वास्तवमें द्रव्यसे पृथग्भूत (भिन्न) ऐसा कोई गुण या ऐसी कोई पर्याय
कुछ नहीं होता; जैसे — सुवर्णसे पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलत्वादि नहीं
होता तदनुसार । अब, उस द्रव्यके स्वरूपकी वृत्तिभूत जो ‘अस्तित्व’ नामसे कहा जानेवाला
द्रव्यत्व वह उसका ‘भाव’ नामसे क हा जानेवाला गुण ही होनेसे, क्या वह द्रव्यसे पृथक्रूप वर्तता है ? नहीं ही वर्तता । तब फि र द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ।।११०।।
अब, द्रव्यके सत् -उत्पाद और असत् -उत्पाद होनेमें अविरोध सिद्ध करते हैं : —
[द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां ] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा [सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं ] सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको [सदा लभते ] सदा प्राप्त करता है ।।१११।।
टीका : — इसप्रकार यथोदित (पूर्वकथित) सर्व प्रकारसे १अकलंक लक्षणवाला,
अनादिनिधन वह द्रव्य सत् -स्वभावमें (अस्तित्वस्वभावमें) उत्पादको प्राप्त होता है । द्रव्यका
वह उत्पाद, द्रव्यकी २अभिधेयताके समय सद्भावसंबद्ध ही है और पर्यायोंकी अभिधेयताके
समय असद्भावसंबद्ध ही है । इसे स्पष्ट समझाते हैं : —
जब द्रव्य ही कहा जाता है — पर्यायें नहीं, तब उत्पत्तिविनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान,
द्रव्यको उत्पन्न करनेवाली ३अन्वयशक्तियोंके द्वारा, उत्पत्तिविनाशलक्षणवाली, क्रमशः प्रवर्तमान,
कृतवान् पश्चाज्जिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानीं रामादिकेवलिपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्याने-
*१. व्यतिरेकव्यक्ति = भेदरूप प्रगटता । [व्यतिरेकव्यक्तियाँ उत्पत्ति विनाशको प्राप्त होती हैं, क्रमशः प्रवृत्त
होती हैं और पर्यायोंको उत्पन्न करती हैं । श्रुतज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि तथा स्वरूपाचरण चारित्र,
यथाख्यातचारित्र इत्यादि आत्मद्रव्यकी व्यतिरेकव्यक्तियाँ हैं । व्यतिरेक और अन्वयके अर्थोंके लिये
१९९वें पृष्ठका फु टनोट (टिप्पणी) देखें । ]
२. सद्भावसंबद्ध = सद्भाव -अस्तित्वके साथ संबंध रखनेवाला, – संकलित । [द्रव्यकी विवक्षाके समय
अन्वय शक्तियोंको मुख्य और व्यतिरेकव्यक्तियोंको गौण कर दिया जाता है, इसलिये द्रव्यके सद्भावसंबद्ध उत्पाद (सत् -उत्पाद, विद्यमानका उत्पाद) है । ]
પ્ર. ૨૮
पर्यायोंकी उत्पादक उन -उन १व्यतिरेकव्यक्तियोंको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको २सद्भावसंबद्ध ही
उत्पाद है; सुवर्णकी भाँति । जैसे : — जब सुवर्ण ही कहा जाता है — बाजूबंधा आदि पर्यायें
नहीं, तब सुवर्ण जितनी स्थायी, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंके द्वारा बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितने स्थायी, क्रमशः प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी उत्पादक उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंको प्राप्त होनेवाले सुवर्णका सद्भावसंबद्ध ही उत्पाद है ।
और जब पर्यायें ही कही जाती हैं, — द्रव्य नहीं, तब उत्पत्तिविनाश जिनका लक्षण है
ऐसी, क्रमशः प्रवर्तमान, पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंके द्वारा, उत्पत्तिविनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान, द्रव्यकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त होनेवाले
भरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां संबन्धी निरुपरागपरमात्मपर्यायः स एव न भवति, तदा
द्रव्यको १असद्भावसंबद्ध ही उत्पाद है; सुवर्णकी ही भाँति । वह इसप्रकार जब बाजूबंधादि
पर्यायें ही कही जाती हैं — सुवर्ण नहीं, तब बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकनेवाली, क्रमशः
प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी उत्पादक उन -उन व्यतिरेक -व्यक्तियोंके द्वारा, सुवर्ण जितनी टिकनेवाली, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त सुवर्णके असद्भावयुक्त ही उत्पाद है ।
अब, पर्यायोंकी अभिधेयता (कथनी) के समय भी, असत् -उत्पादमें पर्यायोंको उत्पन्न
करनेवाली वे -वे व्यतिरेकव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपनेको प्राप्त होती हुई पर्यायोंको द्रव्य करता है (-पर्यायोंकी विवक्षाके समय भी व्यतिरेकव्यक्तियाँ अन्वयशक्तिरूप बनती हुई पर्यायोंको द्रव्यरूप करती हैं ); जैसे बाजूबंध आदि पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली वे- वे व्यतिरेकव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपनेको प्राप्त करती हुई बाजुबंध इत्यादि पर्यायोंको सुवर्ण करता है तद्नुसार । द्रव्यकी अभिधेयताके समय भी, सत् -उत्पादमें
द्रव्यकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ क्रमप्रवृत्तिको प्राप्त करके उस -उस व्यतिरेकव्यक्तित्वको प्राप्त होती हुई, द्रव्यको पर्यायें (-पर्यायरूप) करती हैं; जैसे सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ
१. असद्भावसंबंद्ध = अनस्तित्वके साथ संबंधवाला — संकलित । [पर्यायोंकी विवक्षाके समय
व्यतिरेकव्यक्तियोंको मुख्य और अन्वयशक्तियोंको गौण किया जाता है, इसलिये द्रव्यके असद्भावसंबद्ध उत्पाद (असत् -उत्पाद, अविद्यमानका उत्पाद) है । ]
क्रमप्रवृत्ति प्राप्त करके उस -उस व्यतिरेकव्यक्तित्वको प्राप्त होती हुई, सुवर्णको बाजूबंधादि पर्यायमात्र (-पर्यायमात्ररूप) करती हैं ।
इसलिये द्रव्यार्थिक कथनसे सत् -उत्पाद है, पर्यायार्थिक कथनसे असत् -उत्पाद है —
यह बात अनवद्य (निर्दोष, अबाध्य) है ।
भावार्थ : — जो पहले विद्यमान हो उसीकी उत्पत्तिको सत् -उत्पाद कहते हैं और जो
पहले विद्यमान न हो उसकी उत्पत्तिको असत् -उत्पाद कहते हैं । जब पर्यायोंको गौण करके
द्रव्यका मुख्यतया कथन किया जाता है, तब तो जो विद्यमान था वही उत्पन्न होता है, (क्योंकि द्रव्य तो तीनों कालमें विद्यमान है); इसलिये द्रव्यार्थिक नयसे तो द्रव्यको सत् -उत्पाद है; और जब द्रव्यको गौण करके पर्यायोंका मुख्यतया कथन किया जाता है तब जो विद्यमान नहीं था वह उत्पन्न होता है (क्योंकि वर्तमान पर्याय भूतकालमें विद्यमान नहीं थी), इसलिये पर्यायार्थिक नयसे द्रव्यके असत् -उत्पाद है ।
यहाँ यह लक्ष्यमें रखना चाहिये कि द्रव्य और पर्यायें भिन्न -भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं; इसलिये
पर्यायोंकी विवक्षाके समय भी, असत् -उत्पादमें, जो पर्यायें हैं वे द्रव्य ही हैं, और द्रव्यकी विवक्षाके समय भी सत् -उत्पादमें, जो द्रव्य है वे ही पर्यायें ही हैं ।।१११।।
अब (सर्व पर्यायोंमें द्रव्य अनन्य है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत् -उत्पाद
– इसप्रकार) सत् -उत्पादको अनन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं : —
परित्यजति ।ण चयदि द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यत्वं न त्यजति, द्रव्याद्भिन्नो न भवति ।अण्णो कहं हवदि
अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [भवन् ] परिणमित होता हुआ [नरः ] मनुष्य,
[अमरः ] देव [वा ] अथवा [परः ] अन्य (-तिर्यंच, नारकी या सिद्ध) [भविष्यति ] होगा, [पुनः ] परन्तु [भूत्वा ] मनुष्य देवादि होकर [किं ] क्या वह [द्रव्यत्वं प्रजहाति ] द्रव्यत्वको छोड़ देता है ? [न जहत् ] नहीं छोड़ता हुआ वह [अन्यः कथं भवति ] अन्य कैसे हो सकता है ? (अर्थात् वह अन्य नहीं, वहका वही है ।)।।११२।।
टीका : — प्रथम तो द्रव्य द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको कभी भी न छोड़ता हुआ सत्
(विद्यमान) ही है । और द्रव्यके जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद होता है उसमें भी
द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिका अच्युतपना होनेसे द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पादमें भी अन्वयशक्ति तो अपतित -अविनष्ट -निश्चल होनेसे द्रव्य वहका वही है, अन्य नहीं ।) इसलिये
अनन्यपनेके द्वारा द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्यका द्रव्यापेक्षासे अनन्यपना होनेसे, उसके सत् -उत्पाद है, — ऐसा अनन्यपने द्वारा सिद्ध होता है ।)
इसी बातको (उदाहरण से) स्पष्ट किया जाता है : —
जीव द्रव्य होनेसे और द्रव्य पर्यायोंमें वर्तनेसे जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व,
देवत्व और सिद्धत्वमेंसे किसी एक पर्यायमें अवश्यमेव (परिणमित) होगा । परन्तु वह
जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको छोड़ता है ? नहीं छोड़ता ।
आकुलत्वोत्पादकमनुजदेवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलत्वरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्मात् ।
यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिसने त्रिकोटि सत्ता (-तीन प्रकारकी सत्ता) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो ?
भावार्थ : — जीव मनुष्य -देवादिक पर्यायरूप परिणमित होता हुआ भी अन्य नहीं
हो जाता, अनन्य रहता है, वहका वही रहता है; क्योंकि ‘वही यह देवका जीव है, जो पूर्वभवमें मनुष्य था और अमुक भवमें तिर्यंच था’ ऐसा ज्ञान हो सकता है । इसप्रकार
जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्य अपनी सर्व पर्यायोंमें वहका वही रहता है, अन्य नहीं हो जाता, — ✽अनन्य रहता है । इसप्रकार द्रव्यका अनन्यपना होनेसे द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित
होता है ।।११२।।
अब, असत् -उत्पादको अन्यत्वके द्वारा निश्चित करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [मनुजः ] मनुष्य [देवः न भवति ] देव नहीं है, [वा ] अथवा
[देवः ] देव [मानुषः वा सिद्धः वा ] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] ऐसा न होता हुआ [अनन्य भावं कथं लभते ] अनन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ? ।।११३।।
✽(अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक जीव, मनुष्यादि पर्यायोंरूप परिणमित होने पर भी, अन्वयशक्तिको नहीं छोड़ता होनेसे अनन्य – वहका वही – है ।)
प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव । ततः
पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पादः । तथा हि — न हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात्, न हि त्रिदशो
मनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात्, येनान्य एव न स्यात्;
येन च निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानवलयादिविकारं कांचनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपद- मन्यन्न स्यात् ।।११३।।
देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् ।देवो वा माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति
स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति । कस्मात् । पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात्,
टीका : — पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिके कालमें ही सत् (-विद्यमान)
होनेसे, उससे अन्य कालोंमें असत् (-अविद्यमान) ही हैं। और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत
अन्वयशक्तिके साथ गुंथा हुआ (-एकरूपतासे युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकालमें उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्पना होनेसे, पर्यायें अन्य ही हैं । इसीलिये पर्यायोंकी अन्यताके द्वारा द्रव्यका — जो कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण
और अधिकरण होनेसे पर्यायोंसे अपृथक् है उसका — असत् -उत्पाद निश्चित होता है ।
इस बातको (उदाहरण देकर) स्पष्ट करते हैं : —
मनुष्य वह देव या सिद्ध नहीं है, और देव, वह मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इसप्रकार
न होता हुआ अनन्य (-वहका वही) कैसे हो सकता है, कि जिससे अन्य ही न हो और जिससे मनुष्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी — वलयादि विकार (कंकणादि पर्यायें)
जिसके उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्णकी भाँति — पद -पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो ?
[जैसे कंकण, कुण्डल इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, (-भिन्न -भिन्न हैं, वे की वे ही नहीं हैं) इसलिये उन पर्यायोंका कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसीप्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये उन पर्यायोंका कर्ता जीवद्रव्य भी पर्यायापेक्षासे अन्य है । ]
भावार्थ : — जीवके अनादि अनन्त -होने पर भी, मनुष्य पर्यायकालमें देवपर्यायकी
या स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धपर्यायकी अप्राप्ति है अर्थात् मनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, इसलिये वे पर्यायें अन्य अन्य हैं । ऐसा होनेसे, उन पर्यायोंका कर्त्ता, साधन और आधार जीव भी
पर्यायापेक्षासे अन्यपनेको प्राप्त होता है । इसप्रकार जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्यके पर्यायापेक्षासे
[पुनः च ] और [पर्यायार्थिकेन ] पर्यायार्थिक (नय) से [तत् ] वह (द्रव्य) [अन्यत् ] अन्य- अन्य है, [तत्काले तन्मयत्वात् ] क्योंकि उस समय तन्मय होनेसे [अनन्यत् ] (द्रव्य पर्यायोंसे) अनन्य है ।।११४।।
टीका : — वास्तवमें सभी वस्तु सामान्य -विशेषात्मक होनेसे वस्तुका स्वरूप
देखनेवालोंके क्रमशः (१) सामान्य और (२) विशेषको जाननेवाली दो आँखें हैं —
(१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।
द्रव्यार्थिके बधुं द्रव्य छे; ने ते ज पर्यायार्थिके छे अन्य, जेथी ते समय तद्रूप होई अनन्य छे. ११४.
नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदैकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रव्ये व्याख्यानं कृतं तथा
इनमेंसे पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षुके
द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना — वह
पर्यायस्वरूप विशेषोंमें रहनेवाले एक जीवसामान्यको देखनेवाले और विशेषोंको न देखनेवाले जीवोंको ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा
बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्यमें रहनेवाले नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना — वे पर्यायस्वरूप अनेक विशेषोंको
देखनेवाले और सामान्यको न देखनेवाले जीवोंको (वह जीव द्रव्य) अन्य -अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन -उन विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उन -उन विशेषोंसे अनन्य है — कण्डे,
घास, पत्ते और काष्ठमय अग्निकी भाँति । (जैसे घास, लकड़ी इत्यादिकी अग्नि उस -उस समय
घासमय, लकडीमय इत्यादि होनेसे घास, लकड़ी इत्यादिसे अनन्य है उसीप्रकार द्रव्य उन- उन पर्यायरूप विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उनसे अनन्य है — पृथक् नहीं है ।) और जब उन
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखोंको एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (-द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओंके) देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना पर्यायोंमें रहनेवाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्यमें रहनेवाला नारकपना -तिर्यंचपना -मनुष्यपना -देवपना और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकालमें ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं ।
वहाँ, एक आँखसे देखा जाना वह एकदेश अवलोकन है और दोनों आँखोंसे
देखना वह सर्वावलोकन (-सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकनमें द्रव्यके
अन्यत्व और अनन्यत्व विरोधको प्राप्त नहीं होते ।
भावार्थ : — प्रत्येक द्रव्य सामान्य – विशेषात्मक है, इसलिये प्रत्येक द्रव्य वहका
वही रहता है और बदलता भी है । द्रव्यका स्वरूप ही ऐसा उभयात्मक होनेसे द्रव्यके
अनन्यत्वमें और अन्यत्वमें विरोध नहीं है । जैसे – मरीचि और भगवान महावीरका
जीवसामान्यकी अपेक्षासे अनन्यत्व और जीव विशेषोंकी अपेक्षासे अन्यत्व होनेमें किसी प्रकारका विरोध नहीं है ।
द्रव्यार्थिकनयरूपी एक चक्षुसे देखने पर द्रव्यसामान्य ही ज्ञात होता है, इसलिये
द्रव्य अनन्य अर्थात् वहका वही भासित होता है और पर्यायार्थिकनयरूपी दूसरी एक चक्षुसे देखने पर द्रव्यके पर्यायरूप विशेष ज्ञात होते हैं, इसलिये द्रव्य अन्य -अन्य भासित होता है । दोनों नयरूपी दोनों चक्षुओंसे देखने पर द्रव्यसामान्य और द्रव्यके विशेष दोनों
ज्ञात होते हैं, इसलिये द्रव्य अनन्य तथा अन्य -अन्य दोनों भासित होता है ।।११४।।
अब, समस्त विरोधोंको दूर करनेवाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं : —
अस्तीति च नास्तीति च भवत्यवक्तव्यमिति पुनर्द्रव्यम् ।
पर्यायेण तु केनचित् तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ।।११५।।
स्यादस्त्येव १, स्यान्नास्त्येव २, स्यादवक्तव्यमेव ३, स्यादस्तिनास्त्येव ४, स्याद-
स्त्यवक्तव्यमेव ५, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव ६, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेवेति ७, स्वरूपेण १, पररूपेण २, स्वपररूपयौगपद्येन ३, स्वपररूपक्र मेण ४, स्वरूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ५, पररूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ६, स्वरूपपररूपस्वपररूपयौगपद्यैः ७, आदिश्यमानस्य स्वरूपेण
शुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्रं भण्यते, वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो भण्यते, शुद्धचैतन्यं भावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टय इति प्रथमभङ्गः १ ।णत्थि त्ति य स्यान्नास्त्येव । स्यादिति
अन्वयार्थ : — [द्रव्यं ] द्रव्य [अस्ति इति च ] किसी पर्यायसे ‘अस्ति’, [नास्ति
इति च ] किसी पर्यायसे ‘नास्ति’ [पुनः ] और [अवक्तव्यम् इति भवति ] किसी पर्यायसे ‘अवक्तव्य’ है, [केनचित् पर्यायेण तु तदुभयं ] और किसी पर्यायसे ‘अस्ति- नास्ति’ [वा ] अथवा [अन्यत् आदिष्टम् ] किसी पर्यायसे अन्य तीन भंगरूप कहा गया है ।।११५।।
‘स्यात् नास्ति’; (३) स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् २अवक्तव्य’;
(४) स्वरूप -पररूपके क्रमकी अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -नास्ति’; (५) स्वरूपकी और स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -अवक्तव्य’; (६) पररूपकी और स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् नास्ति’, अवक्तव्य; और (७) स्वरूपकी, पररूपकी तथा स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -नास्ति -अवक्तव्य’ है ।
१. ‘स्यात्’ = कथंचित्; किसीप्रकार; किसी अपेक्षासे । (प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे — स्वद्रव्य,
स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षासे — ‘अस्ति’ है । शुद्ध जीवका स्वचतुष्टय इसप्रकार है : — शुद्ध
गुण -पर्यायोंका आधारभूत शुद्धात्मद्रव्य वह द्रव्य है; लोकाकाशप्रमाण शुद्ध असंख्यप्रदेश वह क्षेत्र है, शुद्ध पर्यायरूपसे परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है ।)
२. अवक्तव्य = जो कहा न जा सके । (एक ही साथ स्वरूप तथा पररूपकी अपेक्षासे द्रव्य कथनमें नहीं
द्रव्यका कथन करनेमें, (१) जो स्वरूपसे ‘सत्’ है; (२) जो पररूपसे ‘असत्’
है; (३) जिसका स्वरूप और पररूपसे युगपत् ‘कथन अशक्य’ है; (४) जो स्वरूपसे और पररूपसे क्रमशः ‘सत् और असत्’ है; (५) जो स्वरूपसे, और स्वरूप -पररूपसे युगपत् ‘सत् और अवक्तव्य’ है; (६) जो पररूपसे, और स्वरूप -पररूपसे युगपत् ‘असत् और अवक्तव्य’ है; तथा (७) जो स्वरूपसे पर -रूप और स्वरूप -पररूपसे युगपत् ‘सत्’, ‘असत्’ और ‘अवक्तव्य’ है — ऐसे अनन्त धर्मोंवाले द्रव्यके एक एक
धर्मका आश्रय लेकर १विवक्षित -अविवक्षितताके विधि -निषेधके द्वारा प्रगट होनेवाली
१. विवक्षित (कथनीय) धर्मको मुख्य करके उसका प्रतिपादन करनेसे और अविवक्षित (न कहने योग्य)
धर्मको गौण करके उसका निषेध करनेसे सप्तभंगी प्रगट होती है ।