हवे १विकल्पस्वरुप धयान तो संसारस्वरुप छे
अने निर्विकल्प धयान मोक्षस्वरुप छे एम आचार्य
दर्शावे छे : —
२९. अर्थ : — द्वैत (सविकल्पक ध्यान) तो वास्तविक रीते
संसारस्वरूप छे अने अद्वैत (निर्विकल्पक ध्यान) मोक्षस्वरूप
छे. संसार तथा मोक्षमां प्राप्त थती अंत (उत्कृष्ट) दशानुं आ
संक्षेपथी कथन छे. जे मनुष्य, पूर्वोक्त बेमांथी प्रथम द्वैतपदथी
धीरे धीरे पाछो हठी २अद्वैतपदनुं आलंबन स्वीकारे छे, ते
पुरुष निश्चयनयथी नामरहित थई जाय छे अने ते पुरुष
व्यवहारनयथी ब्रह्मा, विधाता आदि नामोथी संबोधाय छे.
भावार्थ : — जे पुरुष सविकल्पक ध्यान करे छे ते तो
संसारमां ज भटक्या करे छे, किंतु जे पुरुष निर्विकल्पक ध्यान
आचरे छे ते मोक्षमां जई सिद्धिपदने प्राप्त करे छे; सिद्धोनुं
निश्चयनयथी कोई नाम नहि होईने ते नाम रहित थई जाय
छे अने व्यवहारनयथी तेने ब्रह्मा आदि नामथी संबोधवामां
आवे छे.
द्रढ श्रद्धानी महिमा : —
३०. अर्थ : — हे केवळज्ञानरूप नेत्रोना धारक जिनेश्वर !
मोक्ष प्राप्त करवा अर्थे आपे जे चारित्रनुं वर्णन कर्युं छे ते चारित्र
तो आ विषम कलिकालमां (दुषम पंचमकालमां) मारा जेवा
१. विकल्परूप=राग-द्वेष युक्त, विकार युक्त, २. निर्विकारी आत्मानुं
[ २० ]