हवे आचार्यदेव स्तुति द्वारा ‘देव कोण होइ
शके तथा केवळज्ञान प्राप्तिनो क्रम केवो होय’ ते
वर्णवे छे : —
२. अर्थ : — हे जिनेंद्रदेव ! संसारना त्याग अर्थे
परिग्रहरहितपणुं, रागरहितपणुं, १समता, सर्वथा कर्मोनो
नाश अने अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य सहित
समस्त लोकालोकने प्रकाशनारुं केवळज्ञान एवो क्रम आपने ज
प्राप्त थयो हतो, परंतु आपथी अन्य कोई देवने ए क्रम
प्राप्त थयो नथी, तेथी आप ज शुद्ध छो अने आपना
चरणोनी सेवा सज्जन पुरुषोए करवी योग्य छे.
भावार्थ : — हे भगवान ! आपे ज संसारथी मुक्त
थवा अर्थे समस्त परिग्रहनो त्याग कर्यो छे तथा रागभावने
छोड्यो छे अने समताने धारण करी छे तथा अनंत विज्ञान,
अनंत दर्शन, अनंत सुख अने अनंत वीर्य आपने ज प्रगट
थयां छे, तेथी आप ज शुद्ध अने सज्जनोनी सेवाने पात्र
छो.
सेवानो द्रढ निश्चय अने प्रभु-सेवानुं माहात्म्य : –
अर्थ : — हे त्रैलोक्यपते ! आपनी सेवामां जो मारो द्रढ
निश्चय छे तो मने अत्यंत बळवान संसाररूप वैरीने जीतवो
कांई मुश्केल नथी, केम के जे मनुष्यने जळवृष्टिथी हर्षजनक
१. वीतराग भाव.
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