हवे आचार्यदेव ‘आलोचना’नो आरंभ करे
छे : —
७. अर्थ : — हे जिनेश्वर ! में भ्रांतिथी मन, वचन अने
काया द्वारा भूतकालमां अन्य पासे पाप कराव्यां छे, स्वयं कर्यां
छे अने पाप करनारा अन्योने अनुमोद्यां छे तथा तेमां मारी
संमति आपी छे. वळी वर्तमानमां हुं मन, वचन अने काया
द्वारा अन्य पासे पाप करावुं छुं, स्वयं पाप करुं छुं अने पाप
करनारा अन्योने अनुमोदुं छुं, तेम ज भविष्यकालमां हुं मन,
वचन अने काया द्वारा अन्य पासे पाप करावीश, स्वयं पाप
करीश अने पाप करनारा अन्योने अनुमोदीश
— ते समस्त
पापनी आपनी पासे बेसी जाते निंदा – गर्हा करनार एवो हुं
तेना सर्व पाप सर्वथा मिथ्या थाओ.
भावार्थ : — हे जिनेश्वर ! भूत, वर्तमान, भविष्य –
त्रणे काळमां जे पापो में मन-वचन-काया द्वारा कारित, कृत
अने अनुमोदनथी उपार्जन कर्यां छे, हुं करुं छुं अने करीश –
ए समस्त पापोनो अनुभव करी हुं आपनी समक्ष स्वनिंदा
करुं छुं; माटे मारा ते समस्त पापो सर्वथा मिथ्या थाओ.
आचार्यदेव ‘प्रभुनी अनंत ज्ञान-दर्शन शकित
वर्णवतां आत्म-शुद्धि अर्थे आत्मनिंदा करे छे : —
८. अर्थ : — हे जिनेंद्र! जो आप भूत, भविष्य,
वर्तमान त्रिकाळगोचर अनंत पर्यायोयुक्त लोकालोकने सर्वत्र
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