९८] [अष्टपाहुड
णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं।
इय णाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि।। ४२।।
ज्ञानगुणैः विहीना न लभन्ते ते स्विष्टं लाभं।
इति ज्ञात्वा गुण दोषौ तत् सद्ज्ञानं विजानीहि।। ४२।।
अर्थः––ज्ञानगुण से हीन पुरुष अपनी इच्छित वस्तुके लाभको नहीं प्राप्त करते,
इसप्रकार जानकर हे भव्य! तू पूर्वोक्त सम्यग्ज्ञानको गुण–दोष के जानने के लिये जान।
भवार्थः––ज्ञान के बिना गुण–दोषका ज्ञान नहीं होता तब अपनी इष्ट तथा अनिष्ट
वस्तुको नहीं जानता है तब इष्ट वस्तुका लाभ नहीं होता है इसलिये सम्यग्ज्ञान ही से गुण–
दोष जाने जाते हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञानके बिना हेय–उपादेय वस्तुओंका जानना नहीं होता और
हेय–उपादेय को जाने बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता है, इसलिये ज्ञान ही को चारित्रसे प्रधान
कहा है।। ४२।।
आगे कहते हैं कि जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धारण करता है वह थोड़े ही काल में
अनुपम सुखको पाता हैः––
चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी।
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो।। ४३।।
चारित्रसमारूढ आत्मनि१ परं न ईहते ज्ञानी।
प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्वयतः।। ४३।।
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१ –स० प्रतिमें ’आत्मनि‘ के स्थानमें ’आत्मनः‘ श्रुतसागरी सं० टीका मुद्रित प्रतिमें टीका में अर्थ भी ’आत्मनः‘ का ही किया है, दे०
पृ० ५४।
जे ज्ञानगुणथी रहित, ते पामे न लाभ सु–इष्टने;
गुणदोष जाणी ए रीते, सद्ज्ञानने जाणो तमे। ४२।
ज्ञानी चरित्रारूढ थई निज आत्ममां पर नव चहे,
अचिरे लहे शिवसौख्य अनुपम एम जाणो निश्चये। ४३।