इसप्रकार, अविनाशी मुक्तिके सुखको पाता है। हे भव्य! तू निश्चय से इसप्रकार जान। यहाँ
ज्ञानी होकर हेय–उपादेयको जानकर, संयमी बनकर परद्रव्यको अपने में नहीं मिलाता है वह
परम सुख पाता है, –इसप्रकार बताया है।। ४३।।
सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं।। ४४।।
सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम्।। ४४।।
अर्थः––एवं अर्थात् ऐसे पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप से श्री वीतरागदेवने ज्ञानके द्वारा कहे
इसप्रकार सम्यक्त्व और संयम इन दोनोंके आश्रय चारित्र सम्यक्त्वचरणस्वरूप और
संयमचरणस्वरूप दो प्रकारसे उपदेश किया है, आचार्यने चारित्र के कथन को संक्षेपरूप से कह
कर संकोच किया है।। ४४।।
लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होई।। ४५।।
लघु चतुर्गतीः व्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्भवाः भवत।। ४५।।
अर्थः––यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों! यह चरण अर्थात् चारित्रपाहुड हमने
स्फुट प्रगट करके बनाया है उसको तुम अपने शुद्ध भाव से भाओ। अपने भावोंमें
जे चरण भाख्युं ते कह्युं संक्षेपथी अहीं आ रीते। ४४।