३७२] [अष्टपाहुड
विसएसु मोहिदाणं कह्यिं मग्गं पि इट्ठदरिसीणं।
उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं।। १३।।
उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं।। १३।।
विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां।
उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम्।। १३।।
उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम्।। १३।।
अर्थः–– जो पुरुष इष्१ मार्ग को दिखाने वाले ज्ञानी हैं और विषयों से विमोहित हैं तो
भी उनको मार्ग की प्राप्ति कही है, परन्तु जो उन्मार्ग को दिखाने वाले हैं उनको तो ज्ञान की
प्राप्ति भी निरर्थक है।
भावार्थः––पहिले कहा था कि ज्ञान के और शील के विरोध नहीं है। और यह विषय है
कि ज्ञान हो और विषयासक्त होकर ज्ञान बिगड़े तब शील नहीं है। अव यहाँ इस प्रकार कहा
है कि–––ज्ञान प्राप्त करके कदाचित् चारित्र मोह के उदय से [–उदयवश] विषय न छूटे
वहाँ तक तो उनमें विमोहित रहे और मार्ग की प्ररूपणा करे विषयोंके त्याग रूप ही करे
उसको तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है, परन्तु जो मार्ग ही को कुमार्गरूप प्ररूपण करे विषय–
सेवन को सुमार्ग बतावे तो उसकी तो ज्ञान–प्राप्ति भी निरथर्र ही है, ज्ञान प्राप्त करके भी
मिथ्यामार्ग प्ररूपे उसके ज्ञान कैसा? वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
यहाँ आशय सूचित होता है कि––ाम्यक्त्वसहित अविरत सम्यक्दृष्टि तो अच्छा है
है कि–––ज्ञान प्राप्त करके कदाचित् चारित्र मोह के उदय से [–उदयवश] विषय न छूटे
वहाँ तक तो उनमें विमोहित रहे और मार्ग की प्ररूपणा करे विषयोंके त्याग रूप ही करे
उसको तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है, परन्तु जो मार्ग ही को कुमार्गरूप प्ररूपण करे विषय–
सेवन को सुमार्ग बतावे तो उसकी तो ज्ञान–प्राप्ति भी निरथर्र ही है, ज्ञान प्राप्त करके भी
मिथ्यामार्ग प्ररूपे उसके ज्ञान कैसा? वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
यहाँ आशय सूचित होता है कि––ाम्यक्त्वसहित अविरत सम्यक्दृष्टि तो अच्छा है
क्योंकि सम्यग्दृष्टि कुमार्ग की प्ररूपणा नहीं करता, अपने को [चारित्रदोष से] चारित्रमोह का
उदय प्रबल हो तब तक विषय नहीं छूटते है इसलिये अविरत है, परन्तु जो सम्यग्दृष्टि नहीं है
और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे, विषय भी छोड़े और कुमार्ग का प्ररूपण करे तो
वह अच्छा नहीं है, उसका ज्ञान और विषय छोड़ना निरर्थक है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१३।।
आगे कहते हैं कि जो उन्मार्ग के प्ररूपण करने वाले कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करते
उदय प्रबल हो तब तक विषय नहीं छूटते है इसलिये अविरत है, परन्तु जो सम्यग्दृष्टि नहीं है
और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे, विषय भी छोड़े और कुमार्ग का प्ररूपण करे तो
वह अच्छा नहीं है, उसका ज्ञान और विषय छोड़ना निरर्थक है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१३।।
आगे कहते हैं कि जो उन्मार्ग के प्ररूपण करने वाले कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करते
हैं, वे बहुत शास्त्र जानते है तो भी शीलव्रतज्ञान से रहित हैं, उनके आराधन नहीं हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे इष्टदर्शी मार्गमां, हो विषयमां मोहित भले;
उन्मार्गदर्शी जीवनुं जे ज्ञान ते य निरर्थ छे। १३।