शीलपाहुड][३७३
कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाइं।
शीलवदणाण रहिदा ण हु ते आराधया होंति।। १४।।
शीलवदणाण रहिदा ण हु ते आराधया होंति।। १४।।
कुमतकुश्रुतप्रशंसकाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि।
शीलव्रतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवंति।। १४।।
शीलव्रतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवंति।। १४।।
अर्थः––जो बहुत प्रकारके शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्रकी प्रशंसा करने
वाले हैं वे शीलव्रत और ज्ञान रहित हैं वे इनके आराधक नहीं हैं।
भावार्थः––हो बहुत शास्त्रों को जानकर ज्ञान को बहुत जानते हैं और कुमत कुशास्त्रों
की प्रशंसा करते हैं तो जानो की इनके कुमत से और कुशास्त्र से राग है–प्रीति है तब उनकी
प्रशंसा करते हैं––ये तो मिथ्यात्व के चिन्ह हैं, जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और
विषय–कषायों से रहित होने को शील कहते हैं वह भी उनके नहीं है, व्रत भी उनके नहीं है,
कदाचित् कोई व्रताचरण करते हैं तो भी मिथ्याचारित्ररूप है, इसलिये दर्शन–ज्ञान–चारित्र के
आराधने वाले नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं।। १४।।
आगे कहते हैं कि यदि रूप सुन्दरादिक सामग्री प्राप्त करे और शील रहित हो तो
प्रशंसा करते हैं––ये तो मिथ्यात्व के चिन्ह हैं, जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और
विषय–कषायों से रहित होने को शील कहते हैं वह भी उनके नहीं है, व्रत भी उनके नहीं है,
कदाचित् कोई व्रताचरण करते हैं तो भी मिथ्याचारित्ररूप है, इसलिये दर्शन–ज्ञान–चारित्र के
आराधने वाले नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं।। १४।।
आगे कहते हैं कि यदि रूप सुन्दरादिक सामग्री प्राप्त करे और शील रहित हो तो
उसका मनुष्य जन्म निरर्थक हैः–––
रुवसिरिगव्विदाणं जुव्वणलावण्णकंतिकलिदाणं।
सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म।। १५।।
सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म।। १५।।
रुपश्रीगर्वितानां यौवनलावण्यकांतिकलितानाम्। शील गुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म।। १५।।
अर्थः––जो पुरुष यौवन अवस्था सहित हैं और बहुतों को प्रिय लगते हैं ऐसे लावण्य सहित हैं, शरीर की कांति–प्रभा से मंडित हैं और सुन्दर रूप लक्ष्मी संपदा से गर्वित हैं, मदोन्मत्त हैं , परन्तु वे यदि शील औेर गुणों से रहित हैं तो उनका मनुष्य जनम निरर्थक है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
दुर्मत–कुशास्त्र प्रशंसको जाणे विविध शास्त्रो भले,
व्रत–शील–ज्ञानविहीन छे तेथी न आराधक खरे। १४।
हो रूपश्री गर्वित, भले लावण्य यौवन कान्ति हो,
व्रत–शील–ज्ञानविहीन छे तेथी न आराधक खरे। १४।
हो रूपश्री गर्वित, भले लावण्य यौवन कान्ति हो,
मानव जन्म छे निष्प्रयोजन शीलगुणवर्जित तणो। १५।