सूत्रपाहुड][६५
स्त्री अपने सामर्थ्य की हद्द को पहुँचकर व्रत धारण करती है इस अपेक्षा से उपचार से
महाव्रत कहे हैं।।२४।।
आगे कहते हैं कि यदि स्त्री भी दर्शन से शुद्ध होतो पापरहित है, भली हैः––
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता।
धोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पव्वया भणिया।। २५।।
यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता।
धोरं चरित्वा चारित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता।। २५।।
अर्थः––स्त्रियोंमें जो स्त्री दर्शन अर्थात् यथार्थ जिनमत की श्रद्धासे शुद्ध है वह भी
मार्गसे संयुक्त कही गई है। जो घोर चारित्र, तीव्र तपश्चरणादिक आचारणसे पापरहित होती
है इसलिये उसे पापयुक्त नहीं कहते हैं।
भावार्थः––स्त्रियोंमें जो स्त्री सम्यक्त्व सहित हो और तपश्चरण करे तो पाप रहित
होकर स्वर्गको प्राप्त हो इसलिये प्रशंसा योग्य है परन्तु स्त्रीपर्याय से मोक्ष नहीं है।।२५।।
आगे कहते हैं कि स्त्रियोंके ध्यानकी सिद्धि भी नहीं हैः––
चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण।
विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा।। २६।।
चित्ताशोधि न तेषां शिथिलः भावः तथा स्वभावेन।
विद्यते मासा तेषां स्त्रीषु न शंकया ध्यानम्।। २६।।
अर्थः––उन स्त्रियोंके चित्तसे शुद्धता नहीं है, वैसे ही स्वभावसे भी उनके ढीला भाव है,
शिथिल परिणाम है और उसके मासा अर्थात् मास–मास में रुधिर का स्राव विद्यमान है उसकी
शंका रहती है, उससे स्त्रियोंके ध्यान नहीं है।
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जो होय दर्शन शुद्ध तो तेनेय मार्गयुता कही;
छो चरण घोर चरे छतां स्त्रीने नथी दीक्षा कही। २५।
मनशुद्धि पूरी न नारीने, परिणाम शिथिल स्वभावथी,
वली होय मासिक धर्म, स्त्रीने ध्यान नहि निशंकथी। २६।