६६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––ध्यान होता है वह चित्त शुद्ध हो, दृढ़ परिणाम हों, किसी तरह की शंका न हो तब होता है, सो स्त्रियोंके यह तीनों ही कारण नहीं हैं तब ध्यान कैसे हो? ध्यानके बिना केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो और केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं है, श्वेताम्बरादिक मोक्ष कहते हैं वह मिथ्या है ।।२६।। आगे सूत्रपाहुडको समाप्त करते हैं, सामान्यरूप से सुखका कारण कहते हैंः––
गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेल अत्थेण।
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाइं।। २७।।
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाइं।। २७।।
ग्राह्येण अल्पग्राह्याः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन।
इच्छा येभ्यः निवृत्ताः तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि।। २७।।
इच्छा येभ्यः निवृत्ताः तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि।। २७।।
अर्थः––जो मुनि ग्राह्य अर्थात् ग्रहण करने योग्य वस्तु आहार आदिकसे तो अल्प–ग्राह्य
हैं, थोड़ा ग्रहण करते हैं, जैसे कोई पुरुष बहुत जलसे भरे हुए समुद्रमें से अपने वस्त्र को
धोनेके लिये वस्त्र धोनेमात्र जल ग्रहण करता है, और जिन मुनियोंके इच्छा निवृत्त हो गई
उनके सब दुःख निवृत्त हो गये।
भावार्थः––जगत में यह प्रसिद्ध है कि जिनके संतोष है वे सुखी हैं, इस न्याय से यह
सिद्ध हुआ कि जिन मुनियोंके इच्छाकी निवृत्ति हो गई है, उनके संसार के विषय संबन्धी इच्छा
किंचित्मात्र भी नहीं है, देह से भी विरक्त हैं इसलिये परम संतोषी हैं, और आहारादि कुछ
ग्रहण योग्य हैं उनमें से भी उल्प को ग्रहण करते हैं इसलिये वे परम संतोषी हैं, वे परम सुखी
हैंं, यह जिनसूत्र के श्रद्धानका फल है, अन्य सूत्र में यथार्थ निवृत्तिका प्ररूपण नहीं है, इसलिये
कल्याणके सुख को चाहने वालोंको जिनसूत्रका निरंतर सेवन करना योग्य है ।।२७।।
किंचित्मात्र भी नहीं है, देह से भी विरक्त हैं इसलिये परम संतोषी हैं, और आहारादि कुछ
ग्रहण योग्य हैं उनमें से भी उल्प को ग्रहण करते हैं इसलिये वे परम संतोषी हैं, वे परम सुखी
हैंं, यह जिनसूत्र के श्रद्धानका फल है, अन्य सूत्र में यथार्थ निवृत्तिका प्ररूपण नहीं है, इसलिये
कल्याणके सुख को चाहने वालोंको जिनसूत्रका निरंतर सेवन करना योग्य है ।।२७।।
ऐसे सूत्रपाहुड को पूर्ण किया।
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पट शुद्धिमात्र समुद्रजलवत् ग्राह्य पण अल्प ज ग्रहे,
इच्छा निवर्ती जेमने, दुःख सौ निवर्त्यां तेमने। २७।