सूत्रपाहुड][६७
(छप्पय)
जिनवर की ध्वनी मेघ धवनी सम मुखते गरजे,
गणधरके श्रुति भूमि वरषि अक्षर पद सरजे;
सकल तत्त्व परकास करै जगताप निवारै,
हेय अहेय विधान लोक नीकै मन धारै।
विधि पुण्य–पाप अरु लोक की मुनि श्रावक आचरण फुनि।
करि स्वपर भेद निर्णय सकल, कर्म नाशि शिव लहत मुनि ।।१।।
(दोहा)
वर्धमान जिनके वचन वरतैं पंचम काल।
भव्यपाय शिवमग लहै नमूं तास गुणमाल।।२।।
इति पं॰ जयचन्द्र छाबड़ा कृत देषभाषावचनिकाके हिन्दी अनुवाद सहित
श्री कुन्दकुन्दस्वामि विरचित सूत्रपाहुद समाप्त ।।२।।
ॐ