बहिनश्रीके वचनामृत
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साधकको एक शुद्ध आत्माका ही सम्बन्ध होता है । निर्भयरूपसे उग्र पुरुषार्थ करना, बस ! वही लोकाग्रमें जानेवाला साधक विचारता है ।।२१३।।
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सद्गुरुके उपदेशरूप निमित्तमें (निमित्तपनेकी) पूर्ण शक्ति है, परन्तु तू तैयार न हो तो ? — तू आत्मदर्शन प्रगट न करे तो ? अनन्त-अनन्त कालमें अनेक संयोग प्राप्त हुए परन्तु तूने अंतरमें डुबकी नहीं लगायी ! तू अकेला ही है; सुख-दुःख भोगनेवाला, स्वर्ग या नरकमें गमन करनेवाला केवल तू अकेला ही है ।
‘‘मरता अकेला जीव एवं जन्म एकाकी करे ।
पाता अकेला ही मरण अरु मुक्ति एकाकी करे ।।’’’’
— तू अकेला ही मोक्ष जानेवाला है, इसलिये तू आत्मदर्शन प्रगट कर ।
गुरुकी वाणी सुनकर विचार कर, प्रतीति कर और स्थिर हो; तो तुझे अनंत ज्ञान एवं सुखका धाम ऐसे निज आत्माके दर्शन होंगे ।।२१४।।
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