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मुमुक्षु जीव शुभमें लगता है, परन्तु अपनी शोधक वृत्ति बह न जाय — अपने सत्स्वरूपकी शोध चलती रहे इस प्रकार लगता है । शुद्धताका ध्येय छोड़कर शुभका आग्रह नहीं रखता ।
तथा वह ‘मैं शुद्ध हूँ, मैं शुद्ध हूँ’ करके पर्यायकी अशुद्धताको भूल जाय — स्वच्छन्द हो जाय ऐसा नहीं करता; शुष्कज्ञानी नहीं हो जाता, हृदयको भीगा हुआ रखता है ।।२१५।।
जो वास्तवमें संसारसे थक गया है उसीको सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । वस्तुकी महिमा बराबर ख्यालमें आ जाने पर वह संसारसे इतना अधिक थक जाता है कि ‘मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, एक निज आत्मद्रव्य ही चाहिये’ ऐसी द्रढ़ता करके बस ‘द्रव्य सो ही मैं हूँ’ ऐसे भावरूप परिणमित हो जाता है, अन्य सब निकाल देता है ।
द्रष्टि एक भी भेदको स्वीकार नहीं करती । शाश्वत द्रव्य पर स्थिर हुई द्रष्टि यह देखने नहीं बैठती कि ‘मुझे सम्यग्दर्शन या केवलज्ञान हुआ या