Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 212-213.

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बहिनश्रीके वचनामृत

परन्तु चैतन्यदेवका स्वरूप क्या है, ऐसे रत्नराशि समान उसके अनंत गुणोंका स्वामी कैसा हैवह जाने बिना ध्यान कैसा ? जिसका ध्यान करना है उस वस्तुको पहिचाने बिना, उसे ग्रहण किये बिना, ध्यान किसके आश्रयसे होगा ? एकाग्रता कहाँ होगी ? २११।।

एक सत्-लक्षण आत्माउसीका परिचय रखना । ‘जैसा जिसको परिचय वैसी उसकी परिणति’ । तू लोकाग्रमें विचरनेवाला लौकिक जनोंका संग करेगा तो वह तेरी परिणति पलट जानेका कारण बनेगा । जैसे जंगलमें सिंह निर्भयरूपसे विचरता है उसी प्रकार तू लोकसे निरपेक्षरूप अपने पराक्रमसेपुरुषार्थसेअंतरमें विचरना ।।२१२।।

लोगोंका भय त्यागकर, शिथिलता छोड़कर, स्वयं द्रढ़ पुरुषार्थ करना चाहिये । ‘लोग क्या कहेंगे’ ऐसा देखनेसे चैतन्यलोकमें नहीं पहुँचा जा सकता ।