परन्तु चैतन्यदेवका स्वरूप क्या है, ऐसे रत्नराशि
समान उसके अनंत गुणोंका स्वामी कैसा है — वह
जाने बिना ध्यान कैसा ? जिसका ध्यान करना है
उस वस्तुको पहिचाने बिना, उसे ग्रहण किये बिना,
ध्यान किसके आश्रयसे होगा ? एकाग्रता कहाँ
होगी ? २११।।
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एक सत्-लक्षण आत्मा — उसीका परिचय
रखना । ‘जैसा जिसको परिचय वैसी उसकी
परिणति’ । तू लोकाग्रमें विचरनेवाला लौकिक
जनोंका संग करेगा तो वह तेरी परिणति पलट
जानेका कारण बनेगा । जैसे जंगलमें सिंह
निर्भयरूपसे विचरता है उसी प्रकार तू लोकसे
निरपेक्षरूप अपने पराक्रमसे — पुरुषार्थसे — अंतरमें
विचरना ।।२१२।।
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लोगोंका भय त्यागकर, शिथिलता छोड़कर, स्वयं
द्रढ़ पुरुषार्थ करना चाहिये । ‘लोग क्या कहेंगे’
ऐसा देखनेसे चैतन्यलोकमें नहीं पहुँचा जा सकता ।
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बहिनश्रीके वचनामृत