पर एवं विभावरूप मान लिया है, परन्तु जीवका
मूल स्वरूप बतलानेवाली गुरुकी वाणी सुनने पर
वह जाग उठता है — ‘मैं तो ज्ञायक हूँ’ ऐसा समझ
जाता है और ज्ञायकरूप परिणमित हो जाता
है ।।३०९।।
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चैतन्यलोक अद्भुत है । उसमें ऋद्धिकी
न्यूनता नहीं है । रमणीयतासे भरे हुए इस
चैतन्यलोकमेंसे बाहर आना नहीं सुहाता । ज्ञानकी
ऐसी शक्ति है कि जीव एक ही समयमें इस निज
ऋद्धिको तथा अन्य सबको जान ले । वह अपने
क्षेत्रमें निवास करता हुआ जानता है; श्रम पड़े
बिना, खेद हुए बिना जानता है । अंतरमें रहकर
सब जान लेता है, बाहर झाँकने नहीं जाना
पड़ता ।।३१०।।
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वस्तु तो अनादि-अनंत है । जो पलटता नहीं
है — बदलता नहीं है उस पर द्रष्टि करे, उसका ध्यान
करे, वह अपनी विभूतिका अनुभव करता है ।
बहिनश्रीके वचनामृत
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