Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 310-311.

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पर एवं विभावरूप मान लिया है, परन्तु जीवका
मूल स्वरूप बतलानेवाली गुरुकी वाणी सुनने पर
वह जाग उठता है‘मैं तो ज्ञायक हूँ’ ऐसा समझ
जाता है और ज्ञायकरूप परिणमित हो जाता
है ।।३०९।।
चैतन्यलोक अद्भुत है । उसमें ऋद्धिकी
न्यूनता नहीं है । रमणीयतासे भरे हुए इस
चैतन्यलोकमेंसे बाहर आना नहीं सुहाता । ज्ञानकी
ऐसी शक्ति है कि जीव एक ही समयमें इस निज
ऋद्धिको तथा अन्य सबको जान ले । वह अपने
क्षेत्रमें निवास करता हुआ जानता है; श्रम पड़े
बिना, खेद हुए बिना जानता है । अंतरमें रहकर
सब जान लेता है, बाहर झाँकने नहीं जाना
पड़ता ।।३१०।।
वस्तु तो अनादि-अनंत है । जो पलटता नहीं
हैबदलता नहीं है उस पर द्रष्टि करे, उसका ध्यान
करे, वह अपनी विभूतिका अनुभव करता है ।
बहिनश्रीके वचनामृत
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