बाह्यके अर्थात् विभावके आनन्द — सुखाभासके
साथ, बाहरकी किसी वस्तुके साथ उसका मेल नहीं
है । जो जानता है उसे अनुभवमें आता है । उसे
किसीकी उपमा लागू नहीं होती ।।३११।।
✽
अनादि कालसे एकत्वपरिणमनमें सब एकमेक
हो रहा है, उसमेंसे ‘मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ’ इस
प्रकार भिन्न होना है । गोसलियाके द्रष्टान्तकी भाँति
जीव विभावमें मिल गया है । जिस प्रकार
गोसलियाने अपनी कलाईमें बँधा हुआ डोरा
देखकर अपनेको भिन्न पहिचान लिया, उसी प्रकार
‘ज्ञानडोरा’की ओर यथार्थ लक्ष करके ‘मैं मात्र
ज्ञानस्वरूप हूँ’ इस प्रकार अपनेको भिन्न पहिचान
लेना है ।।३१२।।
✽
मार्गमें चलते हुए यदि कोई सज्जन साथी हो तो
मार्ग सरलतासे कटता है । पंच परमेष्ठी सर्वोत्कृष्ट
साथी हैं । इस कालमें हमें गुरुदेव उत्तम साथी
मिले हैं । साथी भले हो, परन्तु मार्ग पर चलकर
१२२ ]
बहिनश्रीके वचनामृत