बहिनश्रीके वचनामृत
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ध्येय तक पहुँचना तो अपनेको ही है ।।३१३।।
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खण्डखण्डरूप ज्ञानका उपयोग भी परवशता है । परवश सो दुःखी और स्ववश सो सुखी है । शुद्ध शाश्वत चैतन्यतत्त्वके आश्रयरूप स्ववशतासे शाश्वत सुख प्रगट होता है ।।३१४।।
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द्रव्यद्रष्टि शुद्ध अंतःतत्त्वका ही अवलम्बन करती है । निर्मल पर्याय भी बहिःतत्त्व है, उसका अवलम्बन द्रव्यद्रष्टिमें नहीं है ।।३१५।।
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अपनी महिमा ही अपनेको तारती है । बाहरी भक्ति -महिमासे नहीं परन्तु चैतन्यकी परिणतिमें चैतन्यकी निज महिमासे तरा जाता है । चैतन्यकी महिमावंतको भगवानकी सच्ची महिमा होती है । अथवा भगवानकी महिमा समझना वह निज चैतन्य- महिमाको समझनेमें निमित्त होता है ।।३१६।।
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