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मुनिराज वंदना-प्रतिक्रमणादिमें लाचारीसे युक्त होते हैं । केवलज्ञान नहीं होता इसलिये युक्त होना पड़ता है । भूमिकानुसार वह सब आता है परन्तु स्वभावसे विरुद्ध होनेके कारण उपाधिरूप लगता है । स्वभाव निष्क्रिय है उसमेंसे मुनिराजको बाहर आना नहीं सुहाता । जिसे जो कार्य न रुचे वह कार्य उसे भाररूप लगता है ।।३१७।।
जीव अपनी लगनसे ज्ञायकपरिणतिको प्राप्त करता है । मैं ज्ञायक हूँ, मैं विभावभावसे भिन्न हूँ, किसी भी पर्यायमें अटकनेवाला मैं नहीं हूँ, मैं अगाध गुणोंसे भरा हूँ, मैं ध्रुव हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं परमपारिणामिकभाव हूँ — इस तरह, अनेक प्रकारके विचार सम्यक् प्रतीतिकी लगनवाले आत्मार्थीको आते हैं । परन्तु उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली सम्यक् प्रतीतिका तो एक ही प्रकार होता है । प्रतीतिके लिये होनेवाले विचारोंके सर्व प्रकारोंमें ‘मैं ज्ञायक हूँ’ यह प्रकार मूलभूत है ।।३१८।।