एकान्तसे दुःखके बलसे अलग हो ऐसा नहीं है, परन्तु द्रव्यद्रष्टिके बलसे अलग होता है । दुःख लगता हो, सुहाता न हो, परन्तु आत्माको पहिचाने बिना — जाने बिना जाय कहाँ ? आत्माको जाना हो, उसका अस्तित्व ग्रहण किया हो, तभी अलग होता है ।।३३२।।
चेतकर रहना । ‘मुझे आता है’ ऐसे जानकारीके गर्वके मार्ग पर नहीं जाना । विभावके मार्ग पर तो अनादिसे चल ही रहा है । वहाँसे रोकनेके लिये सिर पर गुरु होना चाहिये । एक अपनी लगाम और दूसरी गुरुकी लगाम हो तो जीव पीछे मुड़े ।
जानकारीके मानसे दूर रहना अच्छा है । बाह्य प्रसिद्धिके प्रसंगोंसे दूर भागनेमें लाभ है । वे सब प्रसंग निःसार हैं; सारभूत एक आत्मस्वभाव है ।।३३३।।
आत्मार्थीको श्री गुरुके सान्निध्यमें पुरुषार्थ सहज ही होता है । मैं तो सेवक हूँ — यह द्रष्टि रहना चाहिये । ‘मैं कुछ हूँ’ ऐसा भाव हो तो सेवकपना छूट जाता है । सेवक होकर रहनेमें लाभ है । सेवकपनेका भाव