Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 332-334.

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बहिनश्रीके वचनामृत
१३१
एकान्तसे दुःखके बलसे अलग हो ऐसा नहीं है,
परन्तु द्रव्यद्रष्टिके बलसे अलग होता है । दुःख लगता
हो, सुहाता न हो, परन्तु आत्माको पहिचाने बिना
जाने बिना जाय कहाँ ? आत्माको जाना हो, उसका
अस्तित्व ग्रहण किया हो, तभी अलग होता है ।।३३२।।
चेतकर रहना । ‘मुझे आता है’ ऐसे जानकारीके
गर्वके मार्ग पर नहीं जाना । विभावके मार्ग पर तो
अनादिसे चल ही रहा है । वहाँसे रोकनेके लिये सिर
पर गुरु होना चाहिये । एक अपनी लगाम और दूसरी
गुरुकी लगाम हो तो जीव पीछे मुड़े ।
जानकारीके मानसे दूर रहना अच्छा है । बाह्य
प्रसिद्धिके प्रसंगोंसे दूर भागनेमें लाभ है । वे सब प्रसंग
निःसार हैं; सारभूत एक आत्मस्वभाव है ।।३३३।।
आत्मार्थीको श्री गुरुके सान्निध्यमें पुरुषार्थ सहज ही
होता है । मैं तो सेवक हूँयह द्रष्टि रहना चाहिये ।
‘मैं कुछ हूँ’ ऐसा भाव हो तो सेवकपना छूट जाता है ।
सेवक होकर रहनेमें लाभ है । सेवकपनेका भाव