१३२
बहिनश्रीके वचनामृत
गुणसमुद्र आत्मा प्रगटनेका निमित्त होता है ।।३३४।।
✽
बाहरके चाहे जैसे संयोगमें धर्मको नहीं छोड़ना,
चैतन्यके ओरकी रुचि नहीं छोड़ना । धर्म या रुचि
छूटी तो अमूल्य मनुष्यभव हार गये ।।३३५।।
✽
कर्मोंके विविध विपाकमें ज्ञायकभाव चलित नहीं
होता । जिस प्रकार कीचड़में कमल निर्लेप रहता है,
उसी प्रकार चैतन्य भी चाहे जैसे कर्मसंयोगमें
निर्लेप रहता है ।।३३६।।
✽
द्रव्यको ग्रहण करनेसे शुद्धता प्रगट हो,
चारित्रदशा प्रगट हो, परन्तु ज्ञानी उन पर्यायोंमें नहीं
रुकते । आत्मद्रव्यमें बहुत पड़ा है, बहुत भरा है,
उस आत्मद्रव्यके ऊपरसे ज्ञानीकी द्रष्टि नहीं हटती ।
यदि पर्यायमें रुकें, पर्यायमें चिपक जायँ, तो
मिथ्यात्वमें आ जायँ ।।३३७।।
✽