Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 335-337.

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बहिनश्रीके वचनामृत

गुणसमुद्र आत्मा प्रगटनेका निमित्त होता है ।।३३४।।

बाहरके चाहे जैसे संयोगमें धर्मको नहीं छोड़ना, चैतन्यके ओरकी रुचि नहीं छोड़ना । धर्म या रुचि छूटी तो अमूल्य मनुष्यभव हार गये ।।३३५।।

कर्मोंके विविध विपाकमें ज्ञायकभाव चलित नहीं होता । जिस प्रकार कीचड़में कमल निर्लेप रहता है, उसी प्रकार चैतन्य भी चाहे जैसे कर्मसंयोगमें निर्लेप रहता है ।।३३६।।

द्रव्यको ग्रहण करनेसे शुद्धता प्रगट हो, चारित्रदशा प्रगट हो, परन्तु ज्ञानी उन पर्यायोंमें नहीं रुकते । आत्मद्रव्यमें बहुत पड़ा है, बहुत भरा है, उस आत्मद्रव्यके ऊपरसे ज्ञानीकी द्रष्टि नहीं हटती । यदि पर्यायमें रुकें, पर्यायमें चिपक जायँ, तो मिथ्यात्वमें आ जायँ ।।३३७।।