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आत्मिक विभूति प्रगट होती है । अगाध शक्ति मेंसे क्या नहीं आता ? ३४१।।
अंतरमें तू अपने आत्माके साथ प्रयोजन रख और बाह्यमें देव-शास्त्र-गुरुके साथ; बस, अन्यके साथ तुझे क्या प्रयोजन है ?
जो व्यवहारसे साधनरूप कहे जाते हैं, जिनका आलम्बन साधकको आये बिना नहीं रहता — ऐसे देव-शास्त्र-गुरुके आलम्बनरूप शुभ भाव भी परमार्थसे हेय हैं, तो फि र अन्य पदार्थ या अशुभ भावोंकी तो बात ही क्या ? उनसे तुझे क्या प्रयोजन है ?
आत्माकी मुख्यतापूर्वक देव-शास्त्र-गुरुका आलम्बन साधकको आता है । मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवने भी कहा है कि ‘हे जिनेन्द्र ! मैं किसी भी स्थान पर होऊँ, (परन्तु) पुनः पुनः आपके पादपंकजकी भक्ति हो’ ! — ऐसे भाव साधकदशामें आते हैं, और साथ ही साथ आत्माकी मुख्यता तो सतत बनी ही रहती है ।।३४२।।