अनंत जीव पुरुषार्थ करके, स्वभावरूप परिणमित होकर, विभावको टालकर, सिद्ध हुए हैं; इसलिये यदि तुझे सिद्धमण्डलीमें सम्मिलित होना हो तो तू भी पुरुषार्थ कर ।
किसी भी जीवको पुरुषार्थ किये बिना तो भवान्त होना ही नहीं है । वहाँ कोई जीव तो, जैसे घोड़ा छलाँग मारता है वैसे, उग्र पुरुषार्थ करके त्वरासे वस्तुको पहुँच जाता है, तो कोई जीव धीरे-धीरे पहुँचता है ।
वस्तुको पाना, उसमें स्थिर रहना और आगे बढ़ना — सब पुरुषार्थसे ही होता है । पुरुषार्थ बाहर जाता है उसे अंतरमें लाओ । आत्माके जो सहज स्वभाव हैं वे पुरुषार्थ द्वारा स्वयं प्रगट होंगे ।।३४३।।
जब तक सामान्य तत्त्व — ध्रुव तत्त्व — ख्यालमें न आये, तब तक अंतरमें मार्ग कहाँसे सूझे और कहाँसे प्रगट हो ? इसलिये सामान्य तत्त्वको ख्यालमें लेकर उसका आश्रय करना चाहिये । साधकको आश्रय तो प्रारम्भसे पूर्णता तक एक ज्ञायकका ही —