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बहिनश्रीके वचनामृत
द्रव्यसामान्यका ही — ध्रुव तत्त्वका ही होता है ।
ज्ञायकका — ‘ध्रुव’का जोर एक क्षण भी नहीं हटता ।
द्रष्टि ज्ञायकके सिवा किसीको स्वीकार नहीं करती —
ध्रुवके सिवा किसी पर ध्यान नहीं देती; अशुद्ध पर्याय
पर नहीं, शुद्ध पर्याय पर नहीं, गुणभेद पर नहीं ।
यद्यपि साथ वर्तता हुआ ज्ञान सबका विवेक करता
है, तथापि द्रष्टिका विषय तो सदा एक ध्रुव ज्ञायक
ही है, वह कभी छूटता नहीं है ।
पूज्य गुरुदेवका ऐसा ही उपदेश है, शास्त्र भी
ऐसा ही कहते हैं, वस्तुस्थिति भी ऐसी ही है ।।३४४।।
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मोक्षमार्गका स्वरूप संक्षेपमें कहें तो ‘अंतरमें
ज्ञायक आत्माको साध’ । यह थोड़ेमें बहुत कहा जा
चुका । विस्तार किया जाय तो अनंत रहस्य निकले,
क्योंकि वस्तुमें अनंत भाव भरे हैं । सर्वार्थसिद्धिके देव
तेतीस-तेतीस सागरोपम जितने काल तक धर्मचर्चा,
जिनेन्द्रस्तुति इत्यादि करते रहते हैं । उस सबका संक्षेप
यह है कि — ‘शुभाशुभ भावोंसे न्यारा एक ज्ञायकका
आश्रय करना, ज्ञायकरूप परिणति करनी’ ।।३४५।।
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