Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 350.

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बहिनश्रीके वचनामृत
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तभी तो चले गये होंगे न ? इसलिये, हे जीव ! तू ऐसे
आश्चर्यकारी आत्माकी महिमा लाकर, अपने स्वयंसे
उसकी पहिचान करके, उसकी प्राप्तिका पुरुषार्थ कर ।
तू स्थिरता-अपेक्षासे बाहरका सब न छोड़ सके तो
श्रद्धा-अपेक्षासे तो छोड़ ! छोड़नेसे तेरा कुछ नहीं
जायगा, उलटा परम पदार्थआत्माप्राप्त होगा ३४९
जीवोंको ज्ञान और क्रियाके स्वरूपकी खबर नहीं
है और ‘स्वयं ज्ञान तथा क्रिया दोनों करते हैं’ ऐसी
भ्रमणाका सेवन करते हैं । बाह्य ज्ञानको, भंगभेदके
प्रश्नोत्तरोंको, धारणाज्ञानको वे ‘ज्ञान’ मानते हैं और
परद्रव्यके ग्रहण-त्यागको, शरीरादिकी क्रियाको, अथवा
अधिक करें तो शुभ भावको, वे क्रिया कल्पते हैं ।
‘मुझे इतना आता है, मैं ऐसी कठिन क्रियाएँ करता
हूँ’ इस प्रकार वे मिथ्या संतोषमें रहते हैं ।
ज्ञायककी स्वानुभूतिके बिना ‘ज्ञान’ होता नहीं है
और ज्ञायकके द्रढ़ आलम्बन द्वारा आत्मद्रव्य
स्वभावरूपसे परिणमित होकर जो स्वभावभूत क्रिया
होती है उसके सिवा ‘क्रिया’ है नहीं । पौद्गलिक