बहिनश्रीके वचनामृत
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तभी तो चले गये होंगे न ? इसलिये, हे जीव ! तू ऐसे
आश्चर्यकारी आत्माकी महिमा लाकर, अपने स्वयंसे
उसकी पहिचान करके, उसकी प्राप्तिका पुरुषार्थ कर ।
तू स्थिरता-अपेक्षासे बाहरका सब न छोड़ सके तो
श्रद्धा-अपेक्षासे तो छोड़ ! छोड़नेसे तेरा कुछ नहीं
जायगा, उलटा परम पदार्थ – आत्मा – प्राप्त होगा ।३४९।
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जीवोंको ज्ञान और क्रियाके स्वरूपकी खबर नहीं
है और ‘स्वयं ज्ञान तथा क्रिया दोनों करते हैं’ ऐसी
भ्रमणाका सेवन करते हैं । बाह्य ज्ञानको, भंगभेदके
प्रश्नोत्तरोंको, धारणाज्ञानको वे ‘ज्ञान’ मानते हैं और
परद्रव्यके ग्रहण-त्यागको, शरीरादिकी क्रियाको, अथवा
अधिक करें तो शुभ भावको, वे क्रिया कल्पते हैं ।
‘मुझे इतना आता है, मैं ऐसी कठिन क्रियाएँ करता
हूँ’ इस प्रकार वे मिथ्या संतोषमें रहते हैं ।
ज्ञायककी स्वानुभूतिके बिना ‘ज्ञान’ होता नहीं है
और ज्ञायकके द्रढ़ आलम्बन द्वारा आत्मद्रव्य
स्वभावरूपसे परिणमित होकर जो स्वभावभूत क्रिया
होती है उसके सिवा ‘क्रिया’ है नहीं । पौद्गलिक