बहिनश्रीके वचनामृत
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अंतरसे थकान लगे तो, ज्ञानी द्वारा कुछ दिशा
सूझनेके बाद अंतर ही अंतरमें प्रयत्न करनेसे आत्मा
मिल जाता है ।।३५१।।
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‘द्रव्यसे परिपूर्ण महाप्रभु हूँ, भगवान हूँ, कृतकृत्य
हूँ’ ऐसा मानते होने पर भी ‘पर्यायमें तो मैं पामर
हूँ’ ऐसा महामुनि भी जानते हैं ।
गणधरदेव भी कहते हैं कि ‘हे जिनेन्द्र ! मैं आपके
ज्ञानको नहीं पा सकता । आपके एक समयके ज्ञानमें
समस्त लोकालोक तथा अपनी भी अनंत पर्यायें ज्ञात
होती हैं । कहाँ आपका अनंत-अनंत द्रव्य-पर्यायोंको
जाननेवाला अगाध ज्ञान और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान !
आप अनुपम आनन्दरूप भी सम्पूर्णतया परिणमित हो
गये हैं । कहाँ आपका पूर्ण आनन्द और कहाँ मेरा
अल्प आनन्द ! इसी प्रकार अनन्त गुणोंकी पूर्ण
पर्यायरूपसे आप सम्पूर्णतया परिणमित हो गये हो ।
आपकी क्या महिमा करें ? आपको तो जैसा द्रव्य
वैसी ही एक समयकी पर्याय परिणमित हो गई है;
मेरी पर्याय तो अनन्तवें भाग है’ ।