Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 352.

< Previous Page   Next Page >


Page 141 of 212
PDF/HTML Page 156 of 227

 

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१४१
अंतरसे थकान लगे तो, ज्ञानी द्वारा कुछ दिशा
सूझनेके बाद अंतर ही अंतरमें प्रयत्न करनेसे आत्मा
मिल जाता है ।।३५१।।
‘द्रव्यसे परिपूर्ण महाप्रभु हूँ, भगवान हूँ, कृतकृत्य
हूँ’ ऐसा मानते होने पर भी ‘पर्यायमें तो मैं पामर
हूँ’ ऐसा महामुनि भी जानते हैं ।
गणधरदेव भी कहते हैं कि ‘हे जिनेन्द्र ! मैं आपके
ज्ञानको नहीं पा सकता । आपके एक समयके ज्ञानमें
समस्त लोकालोक तथा अपनी भी अनंत पर्यायें ज्ञात
होती हैं । कहाँ आपका अनंत-अनंत द्रव्य-पर्यायोंको
जाननेवाला अगाध ज्ञान और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान !
आप अनुपम आनन्दरूप भी सम्पूर्णतया परिणमित हो
गये हैं । कहाँ आपका पूर्ण आनन्द और कहाँ मेरा
अल्प आनन्द ! इसी प्रकार अनन्त गुणोंकी पूर्ण
पर्यायरूपसे आप सम्पूर्णतया परिणमित हो गये हो ।
आपकी क्या महिमा करें ? आपको तो जैसा द्रव्य
वैसी ही एक समयकी पर्याय परिणमित हो गई है;
मेरी पर्याय तो अनन्तवें भाग है’ ।