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इस प्रकार प्रत्येक साधक, द्रव्य-अपेक्षासे अपनेको भगवान मानता होने पर भी, पर्याय-अपेक्षासे — ज्ञान, आनन्द, चारित्र, वीर्य इत्यादि सर्व पर्यायोंकी अपेक्षासे — अपनी पामरता जानता है ।।३५२।।
सर्वोत्कृष्ट महिमाका भण्डार चैतन्यदेव अनादि- अनन्त परमपारिणामिकभावमें स्थित है । मुनिराजने (नियमसारके टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेवने) इस परमपारिणामिक भावकी धुन लगायी है । यह पंचम भाव पवित्र है, महिमावंत है । उसका आश्रय करनेसे शुद्धिके प्रारम्भसे लेकर पूर्णता प्रगट होती है ।
जो मलिन हो, अथवा जो अंशतः निर्मल हो, अथवा जो अधूरा हो, अथवा जो शुद्ध एवं पूर्ण होने पर भी सापेक्ष हो, अध्रुव हो और त्रैकालिक-परिपूर्ण- सामर्थ्यवान न हो, उसके आश्रयसे शुद्धता प्रगट नहीं होती; इसलिये औदयिकभाव, क्षायोपशमिकभाव, औपशमिकभाव और क्षायिकभाव अवलम्बनके योग्य नहीं हैं ।