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है । आत्मा अनंतगुणमय है परन्तु द्रव्यद्रष्टि गुणोंके भेदोंका ग्रहण नहीं करती, वह तो एक अखंड त्रैकालिक वस्तुको अभेदरूपसे ग्रहण करती है ।
यह पंचम भाव पावन है, पूजनीय है । उसके आश्रयसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सच्चा मुनिपना आता है, शान्ति और सुख परिणमित होता है, वीतरागता होती है, पंचम गतिकी प्राप्ति होती है ।।३५३।।
तीर्थंकरभगवन्तों द्वारा प्रकाशित दिगम्बर जैन धर्म ही सत्य है ऐसा गुरुदेवने युक्ति -न्यायसे सर्व प्रकार स्पष्टरूपसे समझाया है । मार्गकी खूब छानबीन की है । द्रव्यकी स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्याय, उपादान- निमित्त, निश्चय-व्यवहार, आत्माका शुद्ध स्वरूप, सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति, मोक्षमार्ग इत्यादि सब कुछ उनके परम प्रतापसे इस काल सत्यरूपसे बाहर आया है । गुरुदेवकी श्रुतकी धारा कोई और ही है । उन्होंने हमें तरनेका मार्ग बतलाया है । प्रवचनमें कितना मथ- मथकर निकालते हैं ! उनके प्रतापसे सारे भारतमें बहुत