Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 355-356.

< Previous Page   Next Page >


Page 145 of 212
PDF/HTML Page 160 of 227

 

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१४५
जीव मोक्षमार्गको समझनेका प्रयत्न कर रहे हैं । पंचम
कालमें ऐसा सुयोग प्राप्त हुआ वह अपना परम
सद्भाग्य है । जीवनमें सब उपकार गुरुदेवका ही है ।
गुरुदेव गुणोंसे भरपूर हैं, महिमावन्त हैं । उनके
चरणकमलकी सेवा हृदयमें बसी रहे ।।३५४।।
तरनेका उपाय बाहरी चमत्कारोंमें नहीं रहा है ।
बाह्य चमत्कार साधकका लक्षण भी नहीं हैं ।
चैतन्यचमत्कारस्वरूप स्वसंवेदन ही साधकका लक्षण
है । जो अंतरकी गहराईमें रागके एक कणको भी
लाभरूप मानता है, उसे आत्माके दर्शन नहीं होते ।
निस्पृह ऐसा हो जा कि मुझे अपना अस्तित्व ही
चाहिये, अन्य कुछ नहीं चाहिये । एक आत्माकी ही
लगन लगे और अंतरमेंसे उत्थान हो तो परिणति
पलटे बिना न रहे ।।३५५।।
मुनिराजका निवास चैतन्यदेशमें है । उपयोग
तीक्ष्ण होकर गहरे-गहरे चैतन्यकी गुफामें चला जाता
है । बाहर आने पर मुरदे जैसी दशा होती है ।