जीव मोक्षमार्गको समझनेका प्रयत्न कर रहे हैं । पंचम कालमें ऐसा सुयोग प्राप्त हुआ वह अपना परम सद्भाग्य है । जीवनमें सब उपकार गुरुदेवका ही है । गुरुदेव गुणोंसे भरपूर हैं, महिमावन्त हैं । उनके चरणकमलकी सेवा हृदयमें बसी रहे ।।३५४।।
तरनेका उपाय बाहरी चमत्कारोंमें नहीं रहा है । बाह्य चमत्कार साधकका लक्षण भी नहीं हैं । चैतन्यचमत्कारस्वरूप स्वसंवेदन ही साधकका लक्षण है । जो अंतरकी गहराईमें रागके एक कणको भी लाभरूप मानता है, उसे आत्माके दर्शन नहीं होते । निस्पृह ऐसा हो जा कि मुझे अपना अस्तित्व ही चाहिये, अन्य कुछ नहीं चाहिये । एक आत्माकी ही लगन लगे और अंतरमेंसे उत्थान हो तो परिणति पलटे बिना न रहे ।।३५५।।
मुनिराजका निवास चैतन्यदेशमें है । उपयोग तीक्ष्ण होकर गहरे-गहरे चैतन्यकी गुफामें चला जाता है । बाहर आने पर मुरदे जैसी दशा होती है ।