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शरीरके प्रति राग छूट गया है । शान्तिका सागर उमड़ा है । चैतन्यकी पर्यायकी विविध तरंगें उछल रही हैं । ज्ञानमें कुशल हैं, दर्शनमें प्रबल हैं, समाधिके वेदक हैं । अंतरमें तृप्त-तृप्त हैं । मुनिराज मानों वीतरागताकी मूर्ति हों इस प्रकार परिणमित हो गये हैं । देहमें वीतराग दशा छा गई है । जिन नहीं परन्तु जिनसरीखे हैं ।।३५६।।
इस संसारमें जीव अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, अकेला परिभ्रमण करता है, अकेला मुक्त होता है । उसे किसीका साथ नहीं है । मात्र भ्रान्तिसे वह दूसरेकी ओट और आश्रय मानता है । इस प्रकार चौदह ब्रह्माण्डमें अकेले भटकते हुए जीवने इतने मरण किये हैं कि उसके मरणके दुःखमें उसकी माताकी आँखोंसे जो आंसू बहे उनसे समुद्र भर जायें । भवपरिवर्तन करते-करते बड़ी मुश्किलसे तुझे यह मनुष्यभव प्राप्त हुआ है, ऐसा उत्तम योग मिला है, उसमें आत्माका हित कर लेने जैसा है, बिजलीकी चमकमें मोती पिरो लेने जैसा है । यह मनुष्यभव