Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 360-361.

< Previous Page   Next Page >


Page 148 of 212
PDF/HTML Page 163 of 227

 

१४८

बहिनश्रीके वचनामृत

पहिचाने, तू तो सदा ऐसा ही रहनेवाला है । मुनिके एवं सम्यग्द्रष्टिके हृदयकमलके सिंहासनमें यह सहज- तत्त्व निरंतर विराजमान है ।।३५९।।

सम्यग्द्रष्टिको पुरुषार्थसे रहित कोई काल नहीं है । पुरुषार्थ करके भेदज्ञान प्रगट किया तबसे पुरुषार्थकी धारा चलती ही है । सम्यग्द्रष्टिका यह पुरुषार्थ सहज है, हठपूर्वक नहीं है । द्रष्टि प्रगट होनेके बाद वह एक ओर पड़ी हो ऐसा नहीं है । जैसे अग्नि ढँकी पड़ी हो ऐसा नहीं है । अंतरमें भेदज्ञानका ज्ञातृत्वधाराका प्रगट वेदन है । सहज ज्ञातृत्वधारा चल रही है वह पुरुषार्थसे चल रही है । परम तत्त्वमें अविचलता है । प्रतिकूलताके समूह आये, सारे ब्रह्माण्डमें खलबली मच जाय, तथापि चैतन्यपरिणति न डोलेऐसी सहज दशा है ।।३६०।।

तू ज्ञायकस्वरूप है । अन्य सब तुझसे अलग पड़ा है, मात्र तूने उसके साथ एकत्वबुद्धि की है ।

‘शरीर, वाणी आदि मैं नहीं हूँ, विभावभाव मेरा