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बहिनश्रीके वचनामृत
पहिचाने, तू तो सदा ऐसा ही रहनेवाला है । मुनिके
एवं सम्यग्द्रष्टिके हृदयकमलके सिंहासनमें यह सहज-
तत्त्व निरंतर विराजमान है ।।३५९।।
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सम्यग्द्रष्टिको पुरुषार्थसे रहित कोई काल नहीं है ।
पुरुषार्थ करके भेदज्ञान प्रगट किया तबसे पुरुषार्थकी
धारा चलती ही है । सम्यग्द्रष्टिका यह पुरुषार्थ सहज
है, हठपूर्वक नहीं है । द्रष्टि प्रगट होनेके बाद वह एक
ओर पड़ी हो ऐसा नहीं है । जैसे अग्नि ढँकी पड़ी
हो ऐसा नहीं है । अंतरमें भेदज्ञानका —
ज्ञातृत्वधाराका प्रगट वेदन है । सहज ज्ञातृत्वधारा
चल रही है वह पुरुषार्थसे चल रही है । परम तत्त्वमें
अविचलता है । प्रतिकूलताके समूह आये, सारे
ब्रह्माण्डमें खलबली मच जाय, तथापि चैतन्यपरिणति
न डोले — ऐसी सहज दशा है ।।३६०।।
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तू ज्ञायकस्वरूप है । अन्य सब तुझसे अलग पड़ा
है, मात्र तूने उसके साथ एकत्वबुद्धि की है ।
‘शरीर, वाणी आदि मैं नहीं हूँ, विभावभाव मेरा