स्वरूप नहीं है, जैसा सिद्धभगवानका स्वरूप है वैसा ही मेरा स्वरूप है’ ऐसी यथार्थ श्रद्धा कर ।
शुभ भाव आयँगे अवश्य । परन्तु ‘शुभ भावसे क्रमशः मुक्ति होगी, शुभ भाव चले जायँगे तो सब चला जायगा और मैं शून्य हो जाऊँगा’ — ऐसी श्रद्धा छोड़ ।
तू अगाध अनंत स्वाभाविक शक्ति योंसे भरा हुआ एक अखण्ड पदार्थ है । उसकी श्रद्धा कर और आगे बढ़ । अनंत तीर्थंकर आदि इसी मार्गसे मुक्ति को प्राप्त हुए हैं ।।३६१।।
जिस प्रकार अज्ञानीको ‘शरीर ही मैं हूँ, यह शरीर मेरा है’ ऐसा सहज ही रहा करता है, घोखना नहीं पड़ता, याद नहीं करना पड़ता, उसीप्रकार ज्ञानीको ‘ज्ञायक ही मैं हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं है’ ऐसी सहज परिणति वर्तती रहती है, घोखना नहीं पड़ता, याद नहीं करना पड़ता । । सहज पुरुषार्थ वर्तता रहता है ।।३६२।।
मुनिराज आश्चर्यकारी निज ऋद्धिसे भरे हुए