Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 364-365.

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बहिनश्रीके वचनामृत

चैतन्यमहलमें निवास करते हैं; चैतन्यलोकमें अनंत प्रकारका दर्शनीय है उसका अवलोकन करते हैं; अतीन्द्रिय-आनन्दरूप स्वादिष्ट अमृतभोजनके थाल भरे हैं वह भोजन करते हैं । समरसमय अचिन्त्य दशा है !३६३।।

गुरुदेवने शास्त्रोंके गहन रहस्य सुलझाकर सत्य ढूँढ़ निकाला और हमारे सामने स्पष्टरूपसे रखा है । हमें कहीं सत्य ढूँढ़नेको जाना नहीं पड़ा । गुरुदेवका कोई अद्भुत प्रताप है । ‘आत्मा’ शब्द बोलना सीखे हों तो वह भी गुरुदेवके प्रतापसे । ‘चैतन्य हूँ’, ‘ज्ञायक हूँ’इत्यादि सब गुरुदेवके प्रतापसे ही जाना है । भेदज्ञानकी बात सुननेको मिलना दुर्लभ थी, उसके बदले उनकी सातिशय वाणी द्वारा उसके हमेशा झरने बह रहे हैं । गुरुदेव मानों हाथ पकड़कर सिखा रहे हैं । स्वयं पुरुषार्थ करके सीख लेने जैसा है । अवसर चूकना योग्य नहीं है ।।३६४।।

काल अनादि है, जीव अनादि है, जीवने दो प्राप्त