नहीं किये — जिनराजस्वामी और सम्यक्त्व । जिनराजस्वामी मिले परन्तु उन्हें पहिचाना नहीं, जिससे मिलना वह न मिलनेके बराबर है । अनादि कालसे जीव अंतरमें जाता नहीं है और नवीनता प्राप्त नहीं करता; एकके एक विषयका — शुभाशुभ भावका — पिष्टपेषण करता ही रहता है, थकता नहीं है । अशुभमेंसे शुभमें और फि र शुभमेंसे अशुभमें जाता है । यदि शुभ भावसे मुक्ति मिलती होती, तब तो कबकी मिल गई होती ! अब, यदि पूर्वमें अनन्त बार किये हुए शुभ भावका विश्वास छोड़कर, जीव अपूर्व नवीन भाव करे — जिनवरस्वामी द्वारा उपदिष्ट शुद्ध सम्यक् परिणति करे, तो वह अवश्य शाश्वत सुखको प्राप्त हो ।।३६५।।
जिसने आत्माको पहिचाना है, अनुभव किया है, उसको आत्मा ही सदा समीप वर्तता है, प्रत्येक पर्यायमें शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है । विविध शुभ भाव आयें तब कहीं शुद्धात्मा विस्मृत नहीं हो जाता और वे भाव मुख्यता नहीं पाते ।
मुनिराजको पंचाचार, व्रत, नियम, जिनभक्ति