१५२
इत्यादि सर्व शुभ भावोंके समय भेदज्ञानकी धारा, स्वरूपकी शुद्ध चारित्रदशा निरंतर चलती ही रहती है । शुभ भाव नीचे ही रहते हैं; आत्मा ऊँचाका ऊँचा ही — ऊर्ध्व ही — रहता है । सब कुछ पीछे रह जाता है, आगे एक शुद्धात्मद्रव्य ही रहता है ।।३६६।।
जिनेन्द्रभगवानकी वाणीमें अतिशयता है, उसमें अनंत रहस्य होते हैं, उस वाणी द्वारा बहुत जीव मार्ग प्राप्त करते हैं । ऐसा होने पर भी सम्पूर्ण चैतन्यतत्त्व उस वाणीमें भी नहीं आता । चैतन्यतत्त्व अद्भुत, अनुपम एवं अवर्णनीय है । वह स्वानुभवमें ही यथार्थ पहिचाना जाता है ।।३६७।।
पंचेन्द्रियपना, मनुष्यपना, उत्तम कुल और सत्य धर्मका श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है । ऐसे सातिशय ज्ञानधारी गुरुदेव और उनकी पुरुषार्थप्रेरक वाणीके श्रवणका योग अनंत कालमें महापुण्योदयसे प्राप्त होता है । इसलिये प्रमाद छोड़कर पुरुषार्थ करो । सब सुयोग प्राप्त हो गया है, उसका लाभ ले लो ।