Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 367-368.

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बहिनश्रीके वचनामृत
इत्यादि सर्व शुभ भावोंके समय भेदज्ञानकी धारा,
स्वरूपकी शुद्ध चारित्रदशा निरंतर चलती ही रहती
है । शुभ भाव नीचे ही रहते हैं; आत्मा ऊँचाका
ऊँचा हीऊर्ध्व हीरहता है । सब कुछ पीछे रह
जाता है, आगे एक शुद्धात्मद्रव्य ही रहता है ।।३६६।।
जिनेन्द्रभगवानकी वाणीमें अतिशयता है, उसमें
अनंत रहस्य होते हैं, उस वाणी द्वारा बहुत जीव मार्ग
प्राप्त करते हैं । ऐसा होने पर भी सम्पूर्ण चैतन्यतत्त्व
उस वाणीमें भी नहीं आता । चैतन्यतत्त्व अद्भुत,
अनुपम एवं अवर्णनीय है । वह स्वानुभवमें ही यथार्थ
पहिचाना जाता है ।।३६७।।
पंचेन्द्रियपना, मनुष्यपना, उत्तम कुल और सत्य
धर्मका श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है । ऐसे सातिशय
ज्ञानधारी गुरुदेव और उनकी पुरुषार्थप्रेरक वाणीके
श्रवणका योग अनंत कालमें महापुण्योदयसे प्राप्त
होता है । इसलिये प्रमाद छोड़कर पुरुषार्थ करो ।
सब सुयोग प्राप्त हो गया है, उसका लाभ ले लो ।