Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 369.

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बहिनश्रीके वचनामृत
१५३
सावधान होकर शुद्धात्माको पहिचानकर भवभ्रमणका
अन्त लाओ ।।३६८।।
चैतन्यतत्त्वको पुद्गलात्मक शरीर नहीं है, नहीं है ।
चैतन्यतत्त्वको भवका परिचय नहीं है, नहीं है ।
चैतन्यतत्त्वको शुभाशुभ परिणति नहीं है, नहीं है ।
उसमें शरीरका, भवका, शुभाशुभ भावका संन्यास है ।
जीवने अनंत भवोंमें परिभ्रमण किया, गुण
हीनरूप या विपरीतरूप परिणमित हुए, तथापि मूल
तत्त्व ज्योंका त्यों ही है, गुण ज्योंके त्यों ही हैं ।
ज्ञानगुण हीनरूप परिणमित हुआ उससे कहीं उसके
सामर्थ्यमें न्यूनता नहीं आयी है । आनन्दका अनुभव
नहीं है इसलिये आनन्दगुण कहीं चला नहीं गया है,
नष्ट नहीं हो गया है, घिस नहीं गया है । शक्ति रूपसे
सब ज्योंका त्यों रहा है । अनादि कालसे जीव बाहर
भटकता है, अति अल्प जानता है, आकुलतामें रुक
गया है, तथापि चैतन्यद्रव्य और उसके ज्ञान-आनन्दादि
गुण ज्योंके त्यों स्वयमेव सुरक्षित रहे हैं, उनकी
सुरक्षा नहीं करनी पड़ती ।