सावधान होकर शुद्धात्माको पहिचानकर भवभ्रमणका अन्त लाओ ।।३६८।।
चैतन्यतत्त्वको पुद्गलात्मक शरीर नहीं है, नहीं है । चैतन्यतत्त्वको भवका परिचय नहीं है, नहीं है । चैतन्यतत्त्वको शुभाशुभ परिणति नहीं है, नहीं है । उसमें शरीरका, भवका, शुभाशुभ भावका संन्यास है ।
जीवने अनंत भवोंमें परिभ्रमण किया, गुण हीनरूप या विपरीतरूप परिणमित हुए, तथापि मूल तत्त्व ज्योंका त्यों ही है, गुण ज्योंके त्यों ही हैं । ज्ञानगुण हीनरूप परिणमित हुआ उससे कहीं उसके सामर्थ्यमें न्यूनता नहीं आयी है । आनन्दका अनुभव नहीं है इसलिये आनन्दगुण कहीं चला नहीं गया है, नष्ट नहीं हो गया है, घिस नहीं गया है । शक्ति रूपसे सब ज्योंका त्यों रहा है । अनादि कालसे जीव बाहर भटकता है, अति अल्प जानता है, आकुलतामें रुक गया है, तथापि चैतन्यद्रव्य और उसके ज्ञान-आनन्दादि गुण ज्योंके त्यों स्वयमेव सुरक्षित रहे हैं, उनकी सुरक्षा नहीं करनी पड़ती ।