Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 370-371.

< Previous Page   Next Page >


Page 154 of 212
PDF/HTML Page 169 of 227

 

background image
१५४
बहिनश्रीके वचनामृत
ऐसे परमार्थस्वरूपकी सम्यग्द्रष्टि जीवको
अनुभवयुक्त प्रतीति होती है ।।३६९।।
जिसे आत्माका करना हो उसे आत्माका ध्येय
ही सन्मुख रखने योग्य है । ‘कार्यों’की गिनती
करनेकी अपेक्षा एक आत्माका ध्येय ही मुख्य रखना
वह उत्तम है । प्रवृत्तिरूप ‘कार्य’ तो भूमिकाके
योग्य होते हैं ।
आत्माको मुख्य रखकर जो क्रिया हो उसे ज्ञानी
देखते रहते हैं । उनके सर्व कार्योंमें ‘आत्मा समीप
जिसे रहे’ ऐसा होता है । ध्येयको वे भूलते नहीं
हैं ।।३७०।।
जैसे स्वप्नके लुओंसे भूख नहीं मिटती, जैसे
मरीचिकाके जलसे प्यास नहीं बुझती, वैसे ही पर
पदार्थोंसे सुखी नहीं हुआ जाता ।
‘इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।।’’
’’’