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बहिनश्रीके वचनामृत
— ऐसे परमार्थस्वरूपकी सम्यग्द्रष्टि जीवको
अनुभवयुक्त प्रतीति होती है ।।३६९।।
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जिसे आत्माका करना हो उसे आत्माका ध्येय
ही सन्मुख रखने योग्य है । ‘कार्यों’की गिनती
करनेकी अपेक्षा एक आत्माका ध्येय ही मुख्य रखना
वह उत्तम है । प्रवृत्तिरूप ‘कार्य’ तो भूमिकाके
योग्य होते हैं ।
आत्माको मुख्य रखकर जो क्रिया हो उसे ज्ञानी
देखते रहते हैं । उनके सर्व कार्योंमें ‘आत्मा समीप
जिसे रहे’ ऐसा होता है । ध्येयको वे भूलते नहीं
हैं ।।३७०।।
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जैसे स्वप्नके लुओंसे भूख नहीं मिटती, जैसे
मरीचिकाके जलसे प्यास नहीं बुझती, वैसे ही पर
पदार्थोंसे सुखी नहीं हुआ जाता ।
‘इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे ।
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।।’’
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