Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 370-371.

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बहिनश्रीके वचनामृत

ऐसे परमार्थस्वरूपकी सम्यग्द्रष्टि जीवको अनुभवयुक्त प्रतीति होती है ।।३६९।।

जिसे आत्माका करना हो उसे आत्माका ध्येय ही सन्मुख रखने योग्य है । ‘कार्यों’की गिनती करनेकी अपेक्षा एक आत्माका ध्येय ही मुख्य रखना वह उत्तम है । प्रवृत्तिरूप ‘कार्य’ तो भूमिकाके योग्य होते हैं ।

आत्माको मुख्य रखकर जो क्रिया हो उसे ज्ञानी देखते रहते हैं । उनके सर्व कार्योंमें ‘आत्मा समीप जिसे रहे’ ऐसा होता है । ध्येयको वे भूलते नहीं हैं ।।३७०।।

जैसे स्वप्नके लड्डुओंसे भूख नहीं मिटती, जैसे मरीचिकाके जलसे प्यास नहीं बुझती, वैसे ही पर पदार्थोंसे सुखी नहीं हुआ जाता । ‘इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।।’’ ’’’