लगनी चाहिये; उसके पीछे लगना चाहिये । आत्माको
ध्येयरूप रखकर दिन-रात सतत प्रयत्न करना
चाहिये । ‘मेरा हित कैसे हो?’ ‘मैं आत्माको कैसे
जानूँ?’ — इस प्रकार लगन बढ़ाकर प्रयत्न करे तो
अवश्य मार्ग हाथ लगे ।।२।।
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ज्ञानीकी परिणति सहज होती है । हर एक प्रसंगमें
भेदज्ञानको याद करके उसे घोखना नहीं पड़ता, परन्तु
उनके तो ऐसा सहज परिणमन ही हो जाता है – आत्मामें
धारावाही परिणमन वर्तता ही रहता है ।।३।।
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ज्ञान और वैराग्य एक-दूसरेको प्रोत्साहन देनेवाले
हैं । ज्ञान रहित वैराग्य वह सचमुच वैराग्य नहीं है
किन्तु रुंधा हुआ कषाय है । परन्तु ज्ञान न होनेसे
जीव कषायको पहिचान नहीं पाता । ज्ञान स्वयं
मार्गको जानता है, और वैराग्य है वह ज्ञानको कहीं
फँसने नहीं देता किन्तु सबसे निस्पृह एवं स्वकी
मौजमें ज्ञानको टिका रखता है । ज्ञान सहित जीवन
नियमसे वैराग्यमय ही होता है ।।४।।
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बहिनश्रीके वचनामृत