अहो ! इस अशरण संसारमें जन्मके साथ मरण
लगा हुआ है । आत्माकी सिद्धि न सधे तब तक
जन्म-मरणका चक्र चलता ही रहेगा । ऐसे अशरण
संसारमें देव-गुरु-धर्मका ही शरण है । पूज्य गुरुदेवके
बताये हुए चैतन्यशरणको लक्षगत करके उसके द्रढ़
संस्कार आत्मामें जम जायँ — यही जीवनमें करने
योग्य है ।।५।।
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स्वभावकी बात सुनते ही सीधी हृदय पर चोट
लग जाय । ‘स्वभाव’ शब्द सुनते ही शरीरको चीरता
हुआ हृदयमें उतर जाय, रोम-रोम उल्लसित हो
जाय — इतना हृदयमें हो, और स्वभावको प्राप्त किये
बिना चैन न पड़े, सुख न लगे, उसे लेकर ही छोड़े ।
यथार्थ भूमिकामें ऐसा होता है ।।६।।
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जगतमें जैसे कहते हैं कि कदम-कदम पर पैसेकी
जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार आत्मामें पग-पग पर
अर्थात् पर्याय-पर्यायमें पुरुषार्थ ही आवश्यक है ।
पुरुषार्थके बिना एक भी पर्याय प्रगट नहीं होती ।
बहिनश्रीके वचनामृत
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