Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 374-375.

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बहिनश्रीके वचनामृत
शुभ रागकी रुचि वह भी भवकी रुचि है,
मोक्षकी रुचि नहीं है । जो मंदकषायमें संतुष्ट होता
है, वह अकषायस्वभावी ज्ञायकको जानता नहीं एवं
पाता नहीं । गुरुदेव पुकार-पुकारकर कहते हैं कि
ज्ञायकका आश्रय करके शुद्ध परिणति प्रगट कर;
वही एक पद है, शेष सब अपद है ।।३७४।।
इस चैतन्यतत्त्वको पहिचानना चाहिये । चैतन्यको
पहिचाननेका अभ्यास करना, भेदज्ञानका अभ्यास
करनावही कर्तव्य है । वह अभ्यास करते-करते
आत्माकी रागादिसे भिन्नता भासित हो तो आत्माका
स्वरूप प्राप्त हो जाय । आत्मा चैतन्यतत्त्व है,
ज्ञायकस्वरूप हैउसे पहिचानना चाहिये । जीवको
ऐसा भ्रम है कि परद्रव्यका मैं कर सकता हूँ । परन्तु
स्वयं परपदार्थमें कुछ नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य
स्वतंत्र है । स्वयं ज्ञाता है, ज्ञायक है । परपदार्थमें
उसका ज्ञान जाता नहीं है और परमेंसे कुछ आता
नहीं है । यह समझनेके लिये देव-शास्त्र-गुरु आदि
बाह्य निमित्त होते हैं, परन्तु दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि