Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 376.

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बहिनश्रीके वचनामृत
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जो प्रगट होता है, वह सब अपनेमेंसे ही प्रगट होता
है । उस मूलतत्त्वको पहिचानना वही कर्तव्य है ।
दूसरा बाहरका तो अनंत कालमें बहुत किया है ।
शुभभावकी सब क्रियाएँ कीं, शुभभावमें धर्म माना,
परन्तु धर्म तो आत्माके शुद्धभावमें ही है । शुभ तो
विभाव है, आकुलतारूप है, दुःखरूप है, उसमें कहीं
शान्ति नहीं है । यद्यपि शुभभाव आये बिना नहीं
रहते, तथापि वहाँ शान्ति तो नहीं है । शान्ति हो,
सुख होआनन्द हो ऐसा तत्त्व तो चैतन्य ही है ।
निवृत्तिमय चैतन्यपरिणतिमें ही सुख है, बाह्यमें कहीं
सुख है ही नहीं । इसलिये चैतन्यतत्त्वको पहिचानकर
उसमें स्थिर होनेका प्रयास करना वही यथार्थ श्रेयरूप
है । वह एक ही मनुष्य जीवनमें करनेयोग्य
हितरूपकल्याणरूप है ।।३७५।।
पूर्ण गुणोंसे अभेद ऐसे पूर्ण आत्मद्रव्य पर द्रष्टि
करनेसे, उसीके आलम्बनसे, पूर्णता प्रगट होती है ।
इस अखण्ड द्रव्यका आलम्बन वही अखण्ड एक
परमपारिणामिकभावका आलम्बन है । ज्ञानीको उस