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आलंबनसे प्रगट होनेवाली औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभावरूप पर्यायोंका — व्यक्त होनेवाली विभूतियोंका — वेदन होता है परन्तु उनका आलम्बन नहीं होता — उन पर जोर नहीं होता । जोर तो सदा अखण्ड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है । क्षायिकभावका भी आश्रय या आलम्बन नहीं लिया जाता क्योंकि वह तो पर्याय है, विशेषभाव है । सामान्यके आश्रयसे ही शुद्ध विशेष प्रगट होता है, ध्रुवके आलम्बनसे ही निर्मल उत्पाद होता है । इसलिये सब छोड़कर, एक शुद्धात्मद्रव्यके प्रति — अखण्ड परमपारिणामिकभावके प्रति — द्रष्टि कर, उसीके ऊपर निरन्तर जोर रख, उसीकी ओर उपयोग ढले ऐसा कर ।।३७६।।
स्वभावमेंसे विशेष आनन्द प्रगट करनेके लिये मुनिराज जंगलमें बसे हैं । उस हेतु उनको निरन्तर परमपारिणामिकभावमें लीनता वर्तती है, — दिन-रात रोमरोममें एक आत्मा ही रम रहा है । शरीर है किन्तु शरीरकी कोई चिन्ता नहीं है, देहातीत जैसी दशा है । उत्सर्ग एवं अपवादकी मैत्रीपूर्वक रहनेवाले