Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 378.

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बहिनश्रीके वचनामृत
१५९
हैं । आत्माका पोषण करके निज स्वभावभावोंको
पुष्ट करते हुए विभावभावोंका शोषण करते हैं ।
जिस प्रकार माताका पल्ला पकड़कर चलता हुआ
बालक कुछ अड़चन दिखने पर अधिक जोरसे पल्ला
पकड़ लेता है, उसी प्रकार मुनि परीषह-उपसर्ग आने
पर प्रबल पुरुषार्थपूर्वक निजात्मद्रव्यको पकड़ लेते
हैं । ‘ऐसी पवित्र मुनिदशा कब प्राप्त करेंगे !’ ऐसा
मनोरथ सम्यग्द्रष्टिको वर्तता है ।।३७७।।
जिसे स्वभावकी महिमा जागी है ऐसे सच्चे
आत्मार्थीको विषय-कषायोंकी महिमा टूटकर उनकी
तुच्छता लगती है । उसे चैतन्यस्वभावकी समझमें
निमित्तभूत देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा आती है । कोई
भी कार्य करते हुए उसे निरंतर शुद्ध स्वभाव प्राप्त
करनेका खटका लगा ही रहता है ।
गृहस्थाश्रममें स्थित ज्ञानीको शुभाशुभ भावसे
भिन्न ज्ञायकका अवलम्बन करनेवाली ज्ञातृत्वधारा
निरंतर वर्तती रहती है । परन्तु पुरुषार्थकी निर्बलताके
कारण अस्थिरतारूप विभावपरिणति बनी हुई है