हैं । आत्माका पोषण करके निज स्वभावभावोंको पुष्ट करते हुए विभावभावोंका शोषण करते हैं । जिस प्रकार माताका पल्ला पकड़कर चलता हुआ बालक कुछ अड़चन दिखने पर अधिक जोरसे पल्ला पकड़ लेता है, उसी प्रकार मुनि परीषह-उपसर्ग आने पर प्रबल पुरुषार्थपूर्वक निजात्मद्रव्यको पकड़ लेते हैं । ‘ऐसी पवित्र मुनिदशा कब प्राप्त करेंगे !’ ऐसा मनोरथ सम्यग्द्रष्टिको वर्तता है ।।३७७।।
जिसे स्वभावकी महिमा जागी है ऐसे सच्चे आत्मार्थीको विषय-कषायोंकी महिमा टूटकर उनकी तुच्छता लगती है । उसे चैतन्यस्वभावकी समझमें निमित्तभूत देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा आती है । कोई भी कार्य करते हुए उसे निरंतर शुद्ध स्वभाव प्राप्त करनेका खटका लगा ही रहता है ।
गृहस्थाश्रममें स्थित ज्ञानीको शुभाशुभ भावसे भिन्न ज्ञायकका अवलम्बन करनेवाली ज्ञातृत्वधारा निरंतर वर्तती रहती है । परन्तु पुरुषार्थकी निर्बलताके कारण अस्थिरतारूप विभावपरिणति बनी हुई है