हैं । — ऐसे ऐसे अनेक प्रकारके शुभभाव मुनिराजको भी हठ बिना आते हैं । साथ ही साथ ज्ञायकके उग्र आलम्बनसे मुनियोग्य उग्र ज्ञातृत्वधारा भी सतत चलती ही रहती है ।
साधकको — मुनिको तथा सम्यग्द्रष्टि श्रावकको — जो शुभभाव आते हैं वे ज्ञातृत्वपरिणतिसे विरुद्ध- स्वभाववाले होनेके कारण उनका आकुलतारूपसे — दुःखरूपसे वेदन होता है, हेयरूप ज्ञात होते हैं, तथापि उस भूमिकामें आये बिना नहीं रहते ।
साधककी दशा एकसाथ त्रिपटी ( – तीन विशेषताओंवाली) है : — एक तो, उसे ज्ञायकका आश्रय अर्थात् शुद्धात्मद्रव्यके प्रति जोर निरंतर वर्तता है जिसमें अशुद्ध तथा शुद्ध पर्यायांशकी भी उपेक्षा होती है; दूसरा, शुद्ध पर्यायांशका सुखरूपसे वेदन होता है; और तीसरा, अशुद्ध पर्यायांश — जिसमें व्रत, तप, भक्ति आदि शुभभावोंका समावेश है उसका — दुःखरूपसे, उपाधिरूपसे वेदन होता है ।
साधकको शुभभाव उपाधिरूप लगते हैं — इसका ऐसा अर्थ नहीं है कि वे भाव हठपूर्वक होते हैं ।