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बहिनश्रीके वचनामृत
यों तो साधकके वे भाव हठरहित सहजदशाके हैं,
अज्ञानीकी भाँति ‘ये भाव नहीं करूँगा तो परभवमें
दुःख सहन करना पड़ेंगे’ ऐसे भयसे जबरन् कष्टपूर्वक
नहीं किये जाते; तथापि वे सुखरूप भी ज्ञात नहीं
होते । शुभभावोंके साथ-साथ वर्तती, ज्ञायकका
अवलम्बन लेनेवाली जो यथोचित निर्मल परिणति वही
साधकको सुखरूप ज्ञात होती है ।
जिस प्रकार हाथीके बाहरके दाँत — दिखानेके दाँत
अलग होते हैं और भीतरके दाँत — चबानेके दाँत
अलग होते हैं, उसी प्रकार साधकको बाह्यमें उत्साहके
कार्य — शुभ परिणाम दिखायी दें वे अलग होते हैं और
अंतरमें आत्मशान्तिका — आत्मतृप्तिका स्वाभाविक
परिणमन अलग होता है । बाह्य क्रियाके आधारसे
साधकका अंतर नहीं पहिचाना जाता ।।३७८।।
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जगतमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु तेरा आत्मा ही है ।
उसमें चैतन्यरस और आनन्द भरे हैं । वह गुण-
मणियोंका भण्डार है । ऐसे दिव्यस्वरूप आत्माकी
दिव्यताको तू नहीं पहिचानता और परवस्तुको