Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 379.

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बहिनश्रीके वचनामृत
यों तो साधकके वे भाव हठरहित सहजदशाके हैं,
अज्ञानीकी भाँति ‘ये भाव नहीं करूँगा तो परभवमें
दुःख सहन करना पड़ेंगे’ ऐसे भयसे जबरन् कष्टपूर्वक
नहीं किये जाते; तथापि वे सुखरूप भी ज्ञात नहीं
होते । शुभभावोंके साथ-साथ वर्तती, ज्ञायकका
अवलम्बन लेनेवाली जो यथोचित निर्मल परिणति वही
साधकको सुखरूप ज्ञात होती है ।
जिस प्रकार हाथीके बाहरके दाँतदिखानेके दाँत
अलग होते हैं और भीतरके दाँतचबानेके दाँत
अलग होते हैं, उसी प्रकार साधकको बाह्यमें उत्साहके
कार्यशुभ परिणाम दिखायी दें वे अलग होते हैं और
अंतरमें आत्मशान्तिकाआत्मतृप्तिका स्वाभाविक
परिणमन अलग होता है । बाह्य क्रियाके आधारसे
साधकका अंतर नहीं पहिचाना जाता ।।३७८।।
जगतमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु तेरा आत्मा ही है ।
उसमें चैतन्यरस और आनन्द भरे हैं । वह गुण-
मणियोंका भण्डार है । ऐसे दिव्यस्वरूप आत्माकी
दिव्यताको तू नहीं पहिचानता और परवस्तुको