मूल्यवान मानकर उसे प्राप्त करनेका परिश्रम कर रहा है ! परवस्तु तीन कालमें कभी किसीकी नहीं हुई है, तू व्यर्थ भ्रमणासे उसे अपनी बनानेका प्रयत्न करके अपना अहित कर रहा है ! ३७९।।
जिस प्रकार सुवर्णको जंग नहीं लगती, अग्निको दीमक नहीं लगती, उसी प्रकार ज्ञायकस्वभावमें आवरण, न्यूनता या अशुद्धि नहीं आती । तू उसे पहिचानकर उसमें लीन हो तो तेरे सर्व गुणरत्नोंकी चमक प्रगट होगी ।।३८०।।
जीव भले ही चाहे जितने शास्त्र पढ़ ले, वादविवाद करना जाने, प्रमाण-नय-निक्षेपादिसे वस्तुकी तर्कणा करे, धारणारूप ज्ञानको विचारोंमें विशेष-विशेष फे रे, किन्तु यदि ज्ञानस्वरूप आत्माके अस्तित्वको न पकड़े और तद्रूप परिणमित न हो, तो वह ज्ञेयनिमग्न रहता है, जो-जो बाहरका जाने उसमें तल्लीन हो जाता है, मानों ज्ञान बाहरसे आता हो ऐसा भाव वेदता रहता है । सब पढ़ गया, अनेक