Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 380-381.

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बहिनश्रीके वचनामृत
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मूल्यवान मानकर उसे प्राप्त करनेका परिश्रम कर
रहा है ! परवस्तु तीन कालमें कभी किसीकी नहीं
हुई है, तू व्यर्थ भ्रमणासे उसे अपनी बनानेका
प्रयत्न करके अपना अहित कर रहा है ! ३७९।।
जिस प्रकार सुवर्णको जंग नहीं लगती, अग्निको
दीमक नहीं लगती, उसी प्रकार ज्ञायकस्वभावमें
आवरण, न्यूनता या अशुद्धि नहीं आती । तू उसे
पहिचानकर उसमें लीन हो तो तेरे सर्व गुणरत्नोंकी
चमक प्रगट होगी ।।३८०।।
जीव भले ही चाहे जितने शास्त्र पढ़ ले,
वादविवाद करना जाने, प्रमाण-नय-निक्षेपादिसे
वस्तुकी तर्कणा करे, धारणारूप ज्ञानको विचारोंमें
विशेष-विशेष फे रे, किन्तु यदि ज्ञानस्वरूप आत्माके
अस्तित्वको न पकड़े और तद्रूप परिणमित न हो, तो
वह ज्ञेयनिमग्न रहता है, जो-जो बाहरका जाने उसमें
तल्लीन हो जाता है, मानों ज्ञान बाहरसे आता हो
ऐसा भाव वेदता रहता है । सब पढ़ गया, अनेक