Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 382-383.

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बहिनश्रीके वचनामृत
युक्ति -न्याय जाने, अनेक विचार किये, परन्तु
जाननेवालेको नहीं जाना, ज्ञानकी असली भूमि
द्रष्टिगोचर नहीं हुई, तो वह सब जाननेका फल
क्या ? शास्त्राभ्यासादिका प्रयोजन तो ज्ञानस्वरूप
आत्माको जानना है ।।३८१।।
आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है; वह नित्य
रहकर पलटता है । उसका नित्यस्थायी स्वरूप रीता
नहीं, पूर्ण भरा हुआ है । उसमें अनंत गुणरत्नोंके
कमरे भरे हैं । उस अद्भुत ऋद्धियुक्त नित्य स्वरूप
पर द्रष्टि दे तो तुझे संतोष होगा कि ‘मैं तो सदा
कृतकृत्य हूँ’ । उसमें स्थिर होनेसे तू पर्यायमें
कृतकृत्य हो जायगा ।।३८२।।
ज्ञायकस्वभाव आत्माका निर्णय करके, मति-
श्रुतज्ञानका उपयोग जो बाह्यमें जाता है उसे अंतरमें
समेट लेना, बाहर जाते हुए उपयोगको ज्ञायकके
अवलम्बन द्वारा बारम्बार अंतरमें स्थिर करते रहना,
वही शिवपुरी पहुँचनेका राजमार्ग है । ज्ञायक