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बहिनश्रीके वचनामृत
जीवने अनन्त कालमें अनन्त बार सब कुछ
किया परन्तु आत्माको नहीं पहिचाना । देव-गुरु क्या
कहते हैं वह बराबर जिज्ञासासे सुनकर, विचार
करके, यदि आत्माकी ठोस भूमि जो आत्म-अस्तित्व
उसे ख्यालमें लेकर निजस्वरूपमें लीनता की जाय तो
आत्मा पहिचाननेमें आये — आत्माकी प्राप्ति हो ।
इसके सिवा बाहरसे जितने मिथ्या प्रयत्न किये जायँ
वे सब भूसा कूटनेके बराबर हैं ।।३८५।।
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बाह्य क्रियाएँ मार्ग नहीं बतलातीं, ज्ञान मार्ग
बतलाता है । मोक्षके मार्गका प्रारम्भ सच्ची समझसे
होता है, क्रियासे नहीं । इसलिये प्रत्यक्ष गुरुका उपदेश
और परमागमका प्रयोजनभूत ज्ञान मार्गप्राप्तिके प्रबल
निमित्त हैं । चैतन्यका स्पर्श करके निकलती हुई वाणी
मुमुक्षुको हृदयमें उतर जाती है । आत्मस्पर्शी वाणी
आती हो और जीव एकदम रुचिपूर्वक सुने तो
सम्यक्त्वके निकट हो जाता है ।।३८६।।
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आत्मा उत्कृष्ट अजायबघर है । उसमें अनंत गुणरूप