अलौकिक आश्चर्य भरे हैं । देखने जैसा सब कुछ, आश्चर्यकारी ऐसा सब कुछ, तेरे अपने अजायबघरमें ही है, बाह्यमें कुछ नहीं है । तू उसीका अवलोकन कर न ! उसके भीतर एक बार झाँकनेसे भी तुझे अपूर्व आनन्द होगा । वहाँसे बाहर निकलना तुझे सुहायगा ही नहीं । बाहरकी सर्व वस्तुओंके प्रति तेरा आश्चर्य टूट जायगा । तू परसे विरक्त हो जायगा ।।३८७।।
मुनिराजको शुद्धात्मतत्त्वके उग्र अवलम्बन द्वारा आत्मामेंसे संयम प्रगट हुआ है । सारा ब्रह्माण्ड पलट जाये तथापि मुनिराजकी यह द्रढ़ संयमपरिणति नहीं पलट सकती । बाहरसे देखने पर तो मुनिराज आत्मसाधनाके हेतु वनमें अकेले बसते हैं, परन्तु अंतरमें देखें तो अनंत गुणसे भरपूर स्वरूपनगरमें उनका निवास है । बाहरसे देखने पर भले ही वे क्षुधावंत हों, तृषावंत हों, उपवासी हों, परन्तु अंतरमें देखा जाये तो वे आत्माके मधुर रसका आस्वादन कर रहे हैं । बाहरसे देखने पर भले ही उनके चारों ओर घनघोर अंधेरा व्याप्त हो, परन्तु अंतरमें देखो