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बहिनश्रीके वचनामृत
तो मुनिराजके आत्मामें आत्मज्ञानका उजाला फै ल
रहा है । बाहरसे देखने पर भले ही मुनिराज सूर्यके
प्रखर तापमें ध्यान करते हो, परन्तु अंतरमें वे
संयमरूपी कल्पवृक्षकी शीतल छायामें विराजमान हैं ।
उपसर्गका प्रसंग आये तब मुनिराजको ऐसा लगता है
कि — ‘अपनी स्वरूपस्थिरताके प्रयोगका मुझे अवसर
मिला है इसलिये उपसर्ग मेरा मित्र है’ । अंतरंग
मुनिदशा अद्भुत है; वहाँ देहमें भी उपशमरसके ढाले
ढल गये होते हैं ।।३८८।।
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जिसको द्रव्यद्रष्टि यथार्थ प्रगट होती है उसे द्रष्टिके
जोरमें अकेला ज्ञायक ही — चैतन्य ही भासता है,
शरीरादि कुछ भासित नहीं होता । भेदज्ञानकी
परिणति ऐसी द्रढ़ हो जाती है कि स्वप्नमें भी आत्मा
शरीरसे भिन्न भासता है । दिनको जागृत दशामें तो
ज्ञायक निराला रहता है परन्तु रातको नींदमें भी
आत्मा निराला ही रहता है । निराला तो है ही परन्तु
प्रगट निराला हो जाता है ।
उसको भूमिकानुसार बाह्य वर्तन होता है परन्तु