चाहे जिस संयोगमें उसकी ज्ञान-वैराग्यशक्ति कोई और ही रहती है । मैं तो ज्ञायक सो ज्ञायक ही हूँ, निःशंक ज्ञायक हूँ; विभाव और मैं कभी एक नहीं हुए; ज्ञायक पृथक् ही है, सारा ब्रह्माण्ड पलट जाय तथापि पृथक् ही है । — ऐसा अचल निर्णय होता है । स्वरूप-अनुभवमें अत्यन्त निःशंकता वर्तती है । ज्ञायक ऊपर चढ़कर — ऊर्ध्वरूपसे विराजता है, दूसरा सब नीचे रह जाता है ।।३८९।।
मुनिराज समाधिपरिणत हैं । वे ज्ञायकका अवलंबन लेकर विशेष-विशेष समाधिसुख प्रगट करनेको उत्सुक हैं । मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि मुनि ‘सकलविमल केवलज्ञानदर्शनके लोलुप’ हैं । ‘स्वरूपमें कब ऐसी स्थिरता होगी जब श्रेणी लगकर वीतरागदशा प्रगट होगी ? कब ऐसा अवसर आयेगा जब स्वरूपमें उग्र रमणता होगी और आत्माका परिपूर्ण स्वभावज्ञान — केवलज्ञान प्रगट होगा ? कब ऐसा परम ध्यान जमेगा कि आत्मा शाश्वतरूपसे आत्मस्वभावमें ही रह जायगा ?’ ऐसी